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[ एखयणसारो
... अन्वय़ सहित-विशेमी--(गाणं.) ज्ञानगुण :(अम्पत्ति) आत्मा . रूप है ऐसा (मद) माना गया है, कारण कि (गाणं) जान गण (अप्पाण) आत्मद्रव्य के (विणा) विना अन्य किसी घर-पट आदि व्य में (ण वादि) नहीं रहता है (तम्हा) इसलिये यह जाना जाता है कि किसी अपेक्षा से अर्थात गुण-गुणी की अभेद दृष्टि से (णाणं) ज्ञानगुण (अप्पा) आत्मारूप ही है। किन्तु (अप्पा) आत्मा (णाणं घ) ज्ञानमुण रूप भी है, जब ज्ञान स्वभाव की अपेक्षा विचारा जाता है। (अण्णं वा) तथा अन्य गुणरूप भी है।। 7 . . अब आत्मा के अन्दर पाए जाने वाले सुख वीर्य आवि स्वभावों की अपेक्षा विचारा जाता है। यह नियस नहीं है कि, मात्र ज्ञानरूप ही मात्मा है। यदि एकान्त से ज्ञान ही आत्मा है, ऐसा कहा जाय तब ज्ञानगुण मात्र ही आत्मा प्राप्त हो गया फिर सुख आदि स्वभावों का अवकाश नहीं रहा। तथा सुख, वीर्य आदि स्वभावों के समुदाय का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायगा। जब आधारभूत आत्मा का अभाव हो गया तब उसका आधेयसूत ज्ञानगुण का भी अभाव हो गया इस तरहः एकान्त मत में ज्ञान और आत्मा कोनों का ही अभाव हो जायगा। इसलिये किसी अपेक्षा से ज्ञानस्वरूप आत्मा है सर्वथा.ज्ञानस्वरूप ही नहीं है। यहाँ यह अभिप्राय है कि आत्मा व्याप्य है। इसलिये ज्ञानस्वरूप आत्मा हो सकता है। तथा आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है-और अन्य स्वभाव रूप भी है। तसा ही कहा है 'ध्यापकं सरसन्निष्ठं व्याप्यं तनिष्ठमेव च' व्यापक में व्याप्य एक और दूसरे अनेक रह सकते हैं जबकि व्याप्य यांपक में ही रहता है ॥२७॥ . इस तरह आत्मा और ज्ञान की एकता तथा ज्ञान के व्यवहार से सर्वव्यापकपना है, इत्यादि कथन करते हुए दूसरे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई। ... अथ ज्ञानज्ञेययोः परस्परगमन प्रतिहन्ति- '
गाणी गागसहावो अट्ठा यप्पगा हि णाणिस्स । . स्वाणि व चक्खूणं वाण्णोण्णेस वट्टति ॥२८॥
... . ज्ञानी ज्ञानस्वभावोऽर्था ज्ञेयात्मका. हि शानिनः । . . . ... रूपाणीव चक्षुषोः नवान्योन्येषु वर्तन्ते ॥२८|| .
ज्ञानी चार्थाश्च स्वलक्षणभूतपृथक्त्वतो न मियो वृत्तिमासावयन्ति किन्तु तेषां ज्ञानज्ञेयस्वभावसम्बन्धसाधितमन्योन्यवृत्तिमात्रमस्ति चक्षुरूपवत् । यथा हि घझूषि तद्विषयभूतरूपिद्रव्याणि च परस्परप्रवेशमन्तरेणापि ज्ञेयाकार ग्रहणसमर्पणप्रवणान्येवमात्माऽश्चिान्योन्यवृत्तिमन्तरेणापि विश्वज्ञयाकारग्रहणसमर्पणप्रवणाः ॥२८॥