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पबयणसारो ]
[ ५७ उत्थानिका-आगे कहते हैं-केवलज्ञानी को सर्व प्रत्यक्ष होता है, यह बात अन्वय रूप से पूर्व सूत्र में कही गई । अब केवलज्ञानी को कोई बात भी परोक्ष नहीं है, इसी बात को व्यतिरेक से दृढ़ करते हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ---(समत) समस्तपने अर्थात सर्व आत्मा के प्रदेशों के द्वारा (सम्वरखगुणसमिद्धस्स) सर्व इद्रियों के गुणों से परिपूर्ण अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण शब्द के जानने रूप जो इन्द्रियों के विषय उन सर्व के जानने की शक्ति सर्व आत्मा के प्रदेशों में जिसके प्राप्त हो गई है ऐसे तथा (अक्खातीदस्स) इन्द्रियों के ध्यापार से रहित अथवा ज्ञान करके व्याप्त है आत्मा जिसका ऐसे निर्मल ज्ञान से परिपूर्ण और (सयमेव हि) स्वयमेव हो (णाणजावस्स) केवलज्ञान में परिणमन करने वाले अरहंत भगवान् के (किंविधि) कुछ भी (परोक्खं) परोक्ष (णस्थि) नहीं है ।
भाव यह है कि परमात्मा अतीन्द्रिय स्वभाव है। परमात्मा के स्वभाव से विपरीत क्रम-कम से ज्ञान में प्रवृत्ति करने वाली इन्द्रियां हैं। उनके द्वारा आनने से जो उल्लंघन कर गये हैं अर्थात् जिस परमात्मा के पराधीन ज्ञान नहीं है ऐसे परमात्मा तीन कालवर्ती समस्त पदार्थों को एक साथ प्रत्यक्ष जानने को समर्थ अविनाशी तथा अखंडपने से प्रकाश करने वाले केवलज्ञान में परिणमन करते हैं, अतएव उनके लिए कोई भी पदार्थ परोक्ष नहीं। इस तरह केवलज्ञानियों को सर्व प्रत्यक्ष होता है ऐसा कहते हुए प्रथम स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ॥२२॥
अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वं ज्ञानस्य सर्वगतत्वं चोयोसयति--
आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिळं। णेयं लोयालोयं तम्हा जाणं तु 'सव्वगदं ॥२३॥
आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् ।
ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥२३॥ (यतः) आत्मा हि 'समगुणपर्यायं द्रव्यम्' इति वचनात् ज्ञानेन सह होनाधिकत्वरहितत्त्वेन परिणतत्वात्तत्परिमाणः, ज्ञानं तु ज्ञेयनिष्ठत्वाबाह्यनिष्ठवहनवत्तत्परिमाणं, ज्ञेयं तु लोकालोकविभागविभक्तानन्तपर्यायमालिकालीढस्यरूपमूचिता विच्छेदोत्पादनाच्या षड्नथ्यो सर्वमिति यावत् । ततो निःशेषावरक्षयक्षण एव, लोकालोकविभागविभक्तसमस्तवस्त्वाकारपारमुपगम्य तथंवाप्रव्युतत्वेन व्यवस्थितत्वात्, ज्ञानं सर्वगतम् ॥२३॥
१. सम्वगयं (ज० व०)।