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पवयणसारो ]
(सववव्वपज्जाया) सर्व द्रव्य और उनकी तीन कालवर्ती सर्व पर्याय (पच्चक्खा) प्रत्यक्ष हो जाती हैं। (सः) वह केवली भगवान् (ते) उन सर्व द्रव्य पर्यायों को (ओग्गहपुब्वाहि किरियाहि) अवग्रहपूर्वक क्रियाओं के द्वारा (व विजाणदि) नहीं जानते हैं किन्तु युगपत् जानते हैं, ऐसा अर्थ है।
__ इसका विस्तार यह है कि आदि और अन्त रहित, बिना किसी उपादानकारण के सत्ता रखने वाले तथा चैतन्य और आनन्दमयी स्वभाव के धारी अपने शुद्ध आत्मा को उपादेय, अर्थात् ग्रहण योग्य समझकर केवलज्ञान की उत्पत्ति का बीज मूत जिसको आगम की भाषा से शुक्लध्यान कहते हैं, होने से रागादि विकल्पों के जाल से रहित स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जब यह आत्मा परिणमन करता है तब स्वसंवेदन ज्ञान के फलस्वरूप केवलज्ञानमयी ज्ञानाकार में परिणमन करने वाले केवली भगवान् के उसी ही क्षण में, जब केवलज्ञान पैदा होता है, तब क्रम-क्रम से जानने वाले मतिज्ञानादि ज्ञान के अभाव से, बिना क्रम के एक साथ सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल सहित सर्व द्रव्य, गुण और पर्याय प्रत्यक्ष प्रतिभासमान हो जाते हैं, ऐसा अभिप्राय है।
अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भक्तीत्यभिप्रति
णस्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीवस्स सदा' सयमेव हि जाणजावस्स ॥२२॥
नास्ति परोक्षं किंचिदपि समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य ।
अक्षातीतस्य सर्वदा स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य ॥२२॥ अस्य खलु भगवतः समस्तावरणक्षयक्षणे एव सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिवलाधानहेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहीण्यमाणि तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपः समरसतया समन्ततः सर्वैरेवेन्द्रिगुणैः समद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षममनश्वरं लोकोत्तरज्ञानजातस्य, अक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभायतया न किंचनापि परोक्षमेव स्यात् ॥२२॥
भूमिका—अब, इस भगवान के अतीन्द्रियज्ञान (रूप) परिणत होने से ही कुछ भो परोक्ष नहीं है, इस अभिप्राय को प्रगट करते हैं । ('सब प्रत्यक्ष है ऐसा अन्वय रूप से पूर्व सूत्र में कहा था। अब कुछ भी परोक्ष नहीं है, इस प्रकार उस ही अर्थ को व्यतिरेक से दृढ़ करते हैं)--
१. सबा (जर वृत) २. स्वपरप्रकाशनस्य, स्वर लोको, इति पाठान्तरम् ।