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पवयणसारो ]
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उस-गत (आत्मगत) हैं, ऐसा उपचार किया जाता है किन्तु उनका (आत्मा और शेय पदार्थों का ) परमार्थ से एक-दूसरे में गमन नहीं है, क्योंकि सर्व द्रव्यों के स्वरूप निष्ठपना है ( क्योंकि सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में निश्चल अवस्थित हैं) । यही क्रम ज्ञान में भी निश्चित करने योग्य है ( अर्थात् जिस प्रकार आत्मा और ज्ञेयों के सम्बन्ध में निश्चय व्यवहार से कहा गया है, उसी प्रकार ज्ञान और ज्ञेयों के सम्बन्ध में भी निश्चय व्यवहार से सा ही निश्चय करना चाहिये ) ।
तात्पवृत्ति
अथ यथा ज्ञानं पूर्व सर्वं गतमुक्तं तथैव सर्वगतज्ञानापेक्षया भगवानपि सर्वगतो भवतीत्यावेदपति; -
सन्गडो सर्वगतो भवति । स कः कर्ता ? जिणवसहो जिनवृषभः सर्वज्ञः । कस्मात् ? सर्वगतो भवति । जिणो जिनः णाणमयादो य ज्ञानमयत्वाद्धेतोः सच्चेवि य सगया जगदि अट्ठा सर्वेपि च ये जगत्यर्थास्ते दर्पणे बिम्बवद् व्यवहारेण तत्र भगवति गता भवन्ति । कस्मात् : ते भणिया तेऽस्तत्र गता भणिताः विसयादो विषयत्वात्परिच्छेद्यत्वाद् ज्ञेयत्वात् । कस्य ? तस्स तस्य भगवतः इति । तथाहि यदनन्तज्ञानमनाकुलत्वलक्षणानन्तसुखं च तदाधारभूतस्तावदात्मा इत्थंभूतात्मप्रमाणं ज्ञानमात्मनः स्वस्वरूपं भवति । इत्यंभूतं स्वस्वरूपं देहगतमपरित्यजन्नेव लोकालोकं परिच्छिनत्ति । ततः कारणाद्वयवहारेण सर्वगतो भण्यते भगवान् 1 येन च कारणेन नीलपीतादिवहिः पदार्था आदर्श बिम्बवत् परिचियाकारेण ज्ञाने प्रतिफलन्ति ततः कारणादुपचारेणार्थकार्यभूता अर्थाकारा अप्यर्था भष्यन्ते । ते च ज्ञाने तिष्ठन्तीत्युच्यमाने दोषो नास्तीत्यभिप्रायः ।। २६ ।
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जैसे ज्ञान को पहले सर्वव्यापक कहा गया है से ही सर्वव्यापक ज्ञान की अपेक्षा भगवान् अरहंत आत्मा भी सर्वगत हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( णाणमयादो य ) तथा ज्ञानमयी होने के कारण से ( जिनवसहो) जिन जो गणधरादिक उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान ( जिणो ) जिन अर्थात् कर्मों को जीतने वाला अरहंत या सिद्ध भगवान् (सन्यगदो ) सर्वगत या सर्वव्यापक हैं, ( तस्स ) उस भगवान् के ज्ञान के ( विसयादो) विषयपने को प्राप्त होने के कारण से अर्थात् ज्ञेयपने को प्राप्त होने के कारण से अर्थात् ज्ञेयपने को रखने के कारण से ( सच्चेवि जगति ते अट्ठा) सर्व ही जगत में जो पदार्थ हैं सो (गया) उस भगवान् में प्राप्त या व्याप्त (अनिया ) कहे गए हैं ।
जैसे दर्पण में पदार्थ का बिम्ब पड़ता है तैसे व्यवहारनय से पदार्थ भगवान् के ज्ञान में प्राप्त हैं । भाव यह है कि जो अनन्तज्ञान है तथा अनाकुलपने के लक्षण को रखने वाला अनन्त सुख है उनका आधारभूत जो है सो ही आत्मा है, इस प्रकार के आत्मा का