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[ पक्ष्यणसारो आधार से कुच अल्प ज्ञान व कुछ अल्प सुख में परिणमन करता है। फिर जब कभी विकल्प रहित स्वसंवेवन या निश्चल आत्मानुभव के बल से कर्मों का अमाव होता है तब क्षयोपशमशान के अभाव होने पर इन्द्रियों के व्यापार नहीं होते हैं, उस समय अपने ही अतीविय ज्ञान और सुख को अनुभव करता है क्योंकि स्वभाव के प्रगट होने में पर की अपेक्षा नहीं है, ऐसा अभिप्राय है।
अथातीन्द्रियत्वादेव शुद्धात्मनः शारीरं सुखदुःखं नास्तीति विभावयति--
सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलगाणिस्स पत्थि बेहगदं'। जम्हा अदिवियत्तं मादं तम्हा दु तं प्रेयं ॥२०॥
सौख्यं वा पुनःख केवलज्ञानिनो मास्ति देहगतम् ।
यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मातु तज्जयम् ॥२०॥ थत एव शुद्धात्मनो जातवेदस इव कालायसगोलोकूलितपुद्गलाशेषविलासकल्पो नास्तीन्द्रियग्रामस्तत एवं घोरघनघाताभिघातपरम्परास्थानीयं शरीरगतं सुखदुःखं न स्पात् ॥२०॥
भूमिका-अब, अतीन्द्रियपने के कारण से ही शुद्ध भात्मा के शारीरिक सुख-दुःख नहीं है, इस बात को व्यक्त करते हैं
अन्वयार्थ-[केवलज्ञानिनः] केवलज्ञानी के [देहगतं] शरीर सम्बन्धी [सौख्य ] सुख [वा पुनः] या [दु:खं] दुःख [नास्ति नहीं है [यस्मात् ] क्योंकि [अतीन्द्रियत्व] अतीन्द्रियता [जातं] उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम्] इसलिये ऐसा जानना चाहिये ।
टीका-जैसे अग्नि के लोहपिण्ड के तप्त पुद्गलों का समस्त विलास समूह नहीं है (अर्थात् अग्नि लोहे के गोले के पुद्गलों के विलास से-उनकी क्रिया से भिन्न है) उसो प्रकार शुद्ध आत्मा के इद्रिय समूह नहीं है, इस ही कारण से जैसे (अग्नि के ) घन (लोहपिम्) के घोर आघातों की परम्परा नहीं है (लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने पर धन के लगातार आघातों की भयंकर मार अग्नि पर नहीं पड़ती), इसी प्रकार (शुद्ध आत्मा के) शरीर सम्बन्धी सुख-दुःख नहीं है।
तात्पर्यवृत्तिअथातीन्द्रियत्वादेय केवलिनः शरीराधारांद्भूतं भोजनादिसुखं क्षुधादिदुःखं च नास्तोति विचारयलि:
सोक्छ वा पुण दुरखं केवलणाणिस्त परिच सुखं वा पुनःखं वा केवल१. देहगयं (ज• वृ०)।