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पवयणसारो ]
__ [ ४६ भाव यह कि जैसे लोहे के पिंड की संगति को न पाकर अग्नि हथौड़े को चोट नहीं सहती है तैसे यह आत्मा भी लोहपिंड के समान इन्द्रिय ग्रामों का अभाव होने से अर्थात् इन्द्रियजनित ज्ञान के बन्द होने से गांड दिया गुल्मा तथा दुःलो अनुभव नहीं करता है ।
यहाँ किसी ने कहा है कि केवलज्ञानी भी भोजन करते हैं क्योंकि उनके औदारिक शरीर की सत्ता है तथा असातावेदनीयकर्म के उदय का सद्भाव हैं, जैसे हम लोगों के भोजन होताहै इसका खंडन करते हैं कि श्री केवली भगवान् के औदारिक शरीर नहीं है किन्तु परम औदारिक है, जैसे कि कहा है
___ अर्थात् बोष-रहित केवलज्ञानी के शुद्ध स्फटिक मणि के समान परम तेजस्वी तथा सात धातु से रहित शरीर होता है। और जो यह कहा है कि मसाताबेदनीय के उदय के सद्भाव से केवली के भूख लगती है और वे भोजन करते हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे धान्य, जो आदि का बीज जलादि सहकारी कारण सहित होने पर ही अंकुर आदि कार्य को उत्पन्न करता है तैसे ही असातावेदनीयकर्म मोहनीयकर्मरूप सहकारी कारण के साथ ही क्षुधा आदि कार्य को उत्पन्न करता है क्योंकि कहा है "मोहस्स बलेण घावदे जीवं" देवनीयकर्म मोह के बल को पाकर जीव को घात करता है। यदि मोहनीयकर्म के अभाव होने पर भी असातावेदनीयकर्म क्षुधा आदि परीषह को उत्पन्न करदे तो वध रोग आदि परीषह भी उत्पन्न हो जायें, सो ऐसा होता नहीं है क्योंकि कहा है "भुक्त्युपसगर्गाभावात्" केवली के भोजन व उपसर्ग नहीं होते, और भी दोष यह आता है कि यदि केवली को क्षुधा की बाधा है, तब क्षुधा के कारण शक्ति क्षीण होने से अनन्तवीर्य नहीं बनेगा तैसे ही क्षुधा द्वारा जो दुःखी होगा उसके अनन्तसुख भी नहीं हो सकेगा तथा रसना इन्द्रिय द्वारा ज्ञान में परिणमन करते हुए मतिज्ञानी के केवलज्ञान का होना भी सम्भव न होगा । अथवा और भी हेतु है। असातावेदनीय के उदय की अपेक्षा केवली के सातादेवनीय का उदय अनन्त-गुणा है। इस कारण से जैसे शक्कर के ढेर में नीम का कण अपना असर नहीं दिखलाता है वैसे अनन्तगुणे सातावेदनीय के उक्य में असातावेदनीय का असर नहीं प्रगट होता, तैसे ही और भी बाधक हेतु हैं। जैसे प्रमत्तसंयमी आदि साधुओं के वेद का उदय रहते हुए भी मन्द-मोह के उदय से अखंड ब्रह्मचारियों के स्त्री परीषह की बाधा नहीं होती है तथा नव-येयक आदि के अहमिन्द्रों के वेद का उदय होते हुए भी मन्द मोह के उदय से स्त्री-सेवन-सम्बन्धी बाधा नहीं होती है, तैसे ही श्री