________________
अंतेवासी
आगम विषय कोश-२
अंतेवासी का शाब्दिक अर्थ है निकट रहने वाला। अंत, अभ्यास, आसन्न और समीप-ये सब एकार्थक हैं।
जो आचार्य के समीप रहता है, वह अंतेवासी है। ० अंतेवासी के प्रकार : प्रव्राजना आदि ___ चत्तारि अंतेवासी पण्णत्ता, तंजहा--पव्वावणंतेवासी नाममेगेनो उवट्ठावणंतेवासी, उवट्ठावणंतेवासी नाममेगे नो पव्वावणंतेवासी, एगे पव्वावणंतेवासी वि उवट्ठावणंतेवासी वि, एगे नो पव्वावणंतेवासी नो उवट्ठावणंतेवासीधम्मंतेवासी॥ __चत्तारि अंतेवासीपण्णत्ता, तंजहा–उद्देसणंतेवासी नाममेगे नो वायणंतेवासी. वायणंतेवासी नाममेगेनो उदेसणंतेवासी. एगेउद्देसणंतेवासी विवायणंतेवासी वि, एगेनो उद्देसणंतेवासी नो वायणंतेवासी-धम्मंतेवासी॥ (व्य १०/१७, १८) अंतेवासी चार प्रकार के होते हैं१. कुछ मुनि एक आचार्य के प्रव्रज्या अंतेवासी होते हैं (जो केवल मुनिदीक्षा या सामायिक चारित्र की दृष्टि से आचार्य के पास रहते हैं) किन्तु उपस्थापना अंतेवासी नहीं होते। २. कुछ मुनि एक आचार्य के उपस्थापना अंतेवासी होते हैं, प्रव्रज्या अंतेवासी नहीं होते। (जो केवल महाव्रत आरोपण की दृष्टि से आचार्य के पास रहते हैं।) ३. कुछ मुनि एक आचार्य के प्रव्रज्या अंतेवासी भी होते हैं और उपस्थापना अंतेवासी भी होते हैं। ४. कुछ मुनि एक आचार्य के न प्रव्रज्या अंतेवासी होते हैं और न उपस्थापना अंतेवासी होते हैं, धर्मान्तेवासी होते हैं (धर्मश्रवण के लिए आचार्य के पास रहते हैं)। अंतेवासी के चार (अन्य) प्रकार हैं१. कुछ मुनि एक आचार्य के उद्देशना अंतेवासी होते हैं, वाचना अंतेवासी नहीं। २. कुछ वाचना अंतेवासी होते हैं, उद्देशना अंतेवासी नहीं। ३. कुछ उद्देशना अंतेवासी भी होते हैं और वाचना अंतेवासी भी होते हैं। ४. कुछ मुनि एक आचार्य के न उद्देशना अंतेवासी होते हैं और न वाचना अंतेवासी होते हैं।
यहां अंतेवासी धर्मान्तेवासी की कक्षा के हैं। (एक ही व्यक्ति धर्मान्तेवासी, प्रव्राजनान्तेवासी, उपस्थापनान्तेवासी हो सकता है।-द्र स्था ४/४२४, ४२५ का टि) २. शिष्य के प्रकार : परिणामक आदि
परिणाम अपरिणामे, अइपरिणाम पडिसेह चरिमदुए।" जोदव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं। तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामयं साधु ॥ जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जंजहा जिणक्खायं। तं तह असद्दहंतं, जाण अपरिणामयं साहुं ॥ जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जंजहिंजया काले। तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणामं वियाणाहि॥ परिणमइ जहत्थेणं, मई उ परिणामगस्स कज्जेसु। बिइए न उ परिणमई, अहिगं मइ परिणमे तइओ॥ दोसु वि परिणमइ मई, उस्सग्गऽववायओ उ पढमस्स। बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स।
(बृभा ७९२-७९७) शिष्य के तीन प्रकार हैं१. परिणामक शिष्य २. अपरिणामक शिष्य ३. अतिपरिणामक शिष्य
इन तीनों में अपरिणामक और अतिपरिणामक-ये दो प्रकार के शिष्य छेदसूत्र की वाचना के लिए निषिद्ध हैं।
परिणामक शिष्य-अर्हत् ने द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत जिस उत्सर्ग और अपवाद विधि का प्रतिपादन किया है, जो उसी रूप में उन वचनों पर श्रद्धा करता है, वह परिणामक साधु होता है। उसकी मति यथोचित कार्यों में यथार्थ रूप से परिणत होती है। वह उत्सर्ग मार्ग प्राप्त होने पर उत्सर्गमति तथा अपवाद मार्ग प्राप्त होने पर अपवादमति होता है। जहां उत्सर्ग बलवान् होता है, वहां उत्सर्ग का समाचरण करता है और जहां अपवाद बलवान् होता है, वहां अपवाद का समाचरण करता है, वह परिणामक शिष्य है।
अपरिणामक शिष्य-जो अर्हत् द्वारा प्ररूपित द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत उत्सर्ग तथा अपवाद मार्ग पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org