Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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प्राचीन चरित्रकोश
वध किया। इंद्र हमेशा उसके पीछे पीछे रहने लगा। कोई चिन्ह न देख, नारद ने उसे बताया कि, तू शीघ्र इस कारण एक बार इंद्राणी से इसका प्रेम कलह हुआ ही ऐश्वर्यभ्रष्ट होगा। बलि इस समय इस पर आक्रमण था (ब्रह्म. १२९)।
| करने निकला | इंद्र का सारा वैभव जीत कर वह ले जा त्रिपुर उत्पत्ति--वाचक्नवि मुनि की स्त्री मुकुंदा रहा था । जाते जाते राह में वैभव समुद्र में गिर पड़ा। रुक्मांगद गजा पर मोहित थी। इंद्र ने रुक्मांगद का रूप इंद्रादि देवताओं ने यह बात विष्णुजी से कही । विष्णु धारण कर उससे संभोग किया। आगे इसी वीय से मुकुंदा भगवान ने कहा कि, बलि को साम तथा मधुर वचनों को गृत्समद उत्पन्न हुआ । गृत्समद का पुत्र त्रिपुरासुर। में भुला कर उसे समुद्रमंथन करने के लिये उद्युक्त त्रिपुरासुरादिकों से गणेश ने इंद्र को बचाया (गणेश १. करो । इंद्र बलि के पास पाताल में गया। वहां शरणागत ३६-४०)।
की तरह कुछ समय रह कर अवसर पा, बडी युक्ति से सुकमाख्यान--सुकर्मा के हजार शिष्य अनध्याय के उसने बलि से समुद्रमंथन की बात कही । बलि को समुद्रदिन अध्ययन करते थे, इसलिये इन्द्र ने उनका वध मंथन असंभव लगता था। तब समुद्रमंथन किस तरह हो किया। सुकर्मा ने प्रायोपवेशन प्रारंभ किया तब इंद्र ने सकता है इस के बारेमें आकाशवाणी हुई । बलि उसे वर दिया, कि इन हजारों के साथ दो शिष्य और समुद्रमंथन के लिये तयार हो गया । मंदराचल को मथनी. भी उत्पन्न होंगे जो सुर होगें । ये ही पौष्यजिन् एवं | बनने के लिये बुलवाया, तथा वह तैयार भी हो गया। हिरण्यनाभ (कौशिल्य ) है (वायु.६१.२९-३३; ब्रह्माण्ड. तब विष्णु जी ने उसे गरुड पर रख कर लाया । ऐरावत, ३५.३३-३७)।
उच्चैःश्रवा, पारिजातक तथा रंभा दि समुद्र से निकाले । यज्ञहविर्भाग-- च्यवन को अश्विनीकुमारों ने दृष्टि
चौदह रत्नों में से चार रत्न इसने लिये (भा. ६. ९; दी तथा जरारहित किया, इसलिये शर्याति ने उन्हें हवि दिलवाने का प्रयत्न किया। उस समय इंद्र ने बहुत बाधायें दृत्र उत्पत्ति--बृहस्पति लौट नहीं आ रहे थे, इसलिये डाली, परंतु इंद्र की एक न चली, क्यों कि, जब वह वज्र इंद्र ने विश्वरूपाचार्य को उसके स्थान पर नियुक्त किया। मारने लगा, तब च्यवन ने उसके हाथ की हलचल बंद उसकी मां दैत्यकन्या थी, इसलिये विश्वरूप का स्वाभाविक करा दी, तथा उसे मारने के लिये मद नामक असुर उत्पन्न झुकाव दैत्यों की ओर था। देवताओं के साथ साथ दैत्यों को किया। तब इंद्र उसकी शरण में गया, तथा अश्विनी- भी वह हविर्भाग देता था। इंद्र को यह पता लगते ही कुमारों को यज्ञीय हवि प्राप्त करने का अधिकार दिया। उसने विश्वरूप के तीनों सिर काट डाले (विश्वरूप (म. व. १२५-१२६)।
देखिये)। अपना पुत्र मार डाला गया यह देख त्वष्टा मरुत्ताख्यान-मरुत्त ने एक बार यज्ञ किया। उसने | ने इंद्रका वध करने के लिये वृत्र नामक असुर उत्पन्न प्रथम बृहस्पति को बुलाया परंतु इंद्र के यहां जाना है, | किया तथा हविर्भाग उमे न मिले ऐसा प्रयत्न किया। ऐसा कह कर उसने कहा बाद में आऊंगा । तब मरुत्त ने | उसने इंद्र पर कई बार चढ़ाई की तथा कई बार उसे उसके भाई संवर्त को निमंत्रित कर यज्ञ प्रारंभ किया। परास्त किया। एक बार तो उसने इंद्र को निगल भी बृहस्पति को जब यह पता चला तब उसने इंद्रसे कहा कि, | लिया। इसका कारण यह था कि, इंद्र एक बार प्रदोषव्रत यह यज्ञ ही नहीं होने देना चाहिये। इंद्रने तुरंत धावा | में महादेव जी की विंडी लां गया था ( स्कन्द, बोल दिया, परंतु संवर्त ने अपने प्रभाव से उसे विकलांग | १. १. १७)। कर दिया। इंद्र ने वहां आने के पश्चात् स्वतः सदस्य का वृत्रवध--वृत्रासुर ने इंद्र को हराया इस लिये गुरु के काम किया (म. आश्व. १०)। इसने भंगास्वन को स्त्री उपदेशानुसार इंद्र ने साभ्रमती के तट पर दुर्धर्षेश्वर की बना दिया (भंगास्वन देखिये)।
प्रार्थना की। तब शंकर ने इसे पाशुपतास्त्र दिया, जिससे सागरमंथन -दुर्वासा ऋषि ने इसे एक माला दी थी। उसने वृत्रासुर का वध किया (पद्म. उ. १५३)। इंद्र के द्वारा उसका अनादर हुआ। 'तू ऐश्वर्य भ्रष्ट होगा,' पराभव हुआ तब इंद्र शंकर की शरण गया। शंकर ने उसे ऐसा उसे शाप मिला। इसी समय अपने घर आये गुरु वज्र दिया जिससे उसने वृत्रासुर का वध किया (प. उ. बृहस्पति का इसने उत्थापन द्वारा मान नही किया, १६८)। इंद्र ने वृत्रासुर के वध के लिये दधीचि से इसलिये बृहस्पति वापस चले गये। बृहस्पति के आने के अस्थियाँ मांगी। विश्वकर्मा ने उससे वज्र तैयार किया।
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