Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ मंगलाचरण] [13 भवियजणणिन्वइकरेणं-इसके दो अर्थ फलित होते हैं तथाविध अनादिपारिणामिकभाव के कारण जो सिद्धिगमनयोग्य हो, वह भव्य कहलाता है। ऐसे भव्यजनों को जो निर्वृति-निर्वाण, शान्ति या निर्वाण के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि प्रदान करने वाले हैं। निर्वाण का एक अर्थ हैसमस्त कर्ममल के दूर होने से स्वस्वरूप के लाभ से परम स्वास्थ्य / प्रश्न यह है कि ऐसे निर्वाण के हेतुभूत सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय भी केवल भव्यजनों को ही भगवान् देते हैं, यह तो एक प्रकार का पक्षपात हुआ भव्यों के प्रति / इसका समाधान यह है कि सूर्य सभी को समानभाव से प्रकाश देता है, किन्तु उस प्रकार के योग्य चक्षुष्मान् प्राणी ही उससे लाभ उठा पाते हैं, तामस खगपक्षी (उल्ल आदि) को उसका प्रकाश उपकारक नहीं होता, वैसे ही भगवान् सभी प्राणियोंको समानभाव से उपदेश देते हैं, किन्तु अभव्य जीवों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे भगवान् के उपदेश से लाभ नहीं उठा पाते / उवदंसिया-जैसे श्रोताओं को झटपट यथार्थवस्तुतत्त्वबोध समीप से होता है, वैसे ही भगवान् ने स्पष्ट प्रवचनों से श्रोताओं के लिए यह (प्रज्ञापना) श्रवणगोचर कर दी, उपदिष्ट की। पण्णवणा=प्रज्ञापना-जीवादि भाव जिस शब्दसंहति द्वारा प्रज्ञापित-प्ररूपित किये जाते हैं।' प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीस पदों के नाम 2. पण्णवणा 1 ठाणाई 2 बहुवत्तन्वं 3 ठिई 4 विसेसा य 5 / वक्कंती 6 उस्सासो 7 सण्णा 8 जोणी यह चरिमाई 10 // 4 // भासा 11 सरीर 12 परिणाम 13 कसाए 14 इंदिए 15 पयोगे य 16 / लेसा 17 काठिई या 18 सम्मत्ते 16 अंतकिरिया य 20 // 5 // प्रोगाहणसंठाणे 21 किरिया 22 कम्मे ति याबरे 23 / कम्मस्स बंधए 24 कम्मवेदए 25 वेदस्स बंधए 26 वेयवेयए 27 // 6 // प्राहारे 28 उवनोगे 26 पासणया 30 सण्णि 31 संजमे 32 चेव / प्रोही 33 पवियारण 34 वेयणा य 35 तत्तो समुग्घाए 36 // 7 // 2. [अर्थाधिकार-संग्रहिणी गाथाओं का अर्थ-] (प्रज्ञापनासूत्र में छत्तीस पद हैं / वे क्रमशः इस प्रकार हैं-) 1. प्रज्ञापना, 2. स्थान, 3. बहुवक्तव्य, 4. स्थिति, 5. विशेष, 6. व्युत्क्रान्ति (उपपात-उद्वर्तनादि), 7. उच्छ्वास, 8. संज्ञा, 6. योनि, 10. चरम // 4 // 11. भाषा, 12. शरीर, 13. परिणाम, 14. कषाय, 15. इन्द्रिय, 16. प्रयोग, 17. लेश्या, 18. कायस्थिति, 16. सम्यक्त्व और 20. अन्तक्रिया // 5 // 21. अवगाहना-संस्थान, 22. क्रिया, 23. कर्म और इसके पश्चात् 24. कर्म का बन्धक, 25. कर्म का वेदक, 26. वेद का बन्धक, 27. वेद-वेदक / / 6 / / 28. आहार, 26. उपयोग, 30. पश्यत्ता, 41. संज्ञी और 32. संयम, 33. अवधि, 34. प्रविचारणा, 35. तथा वेदना, एवं इसके अनन्तर 36. समुद्घात / / 7 / / (इन सबके अंत में 'पद' शब्द जोड़ देना चाहिए।) . 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org