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सर्वदर्शनसंग्रहे२२. अश्वस्यात्र हि शिश्नं तु पत्नीग्रामं प्रकीर्तितम् ।
भण्डस्तद्वत्तरं चैव पाह्मजातं प्रकोर्तितम् ।।
मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम् ॥ इति ॥ तस्माद्वहनां प्राणिनामनुग्रहार्थ चार्वाक-मतमाश्रयणीयमिति रमणीयम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसङ्ग्रहे चार्वाकदर्शनम् ॥
इसलिए ब्राह्मणों द्वारा बनाया हुआ यह जीविकोपाय है-मृत व्यक्तियों के सारे मरणोत्तर कार्य; इसके अतिरिक्त ये सब कुछ नहीं हैं ॥ २० ॥ वेद के रचयिता तीन हैंभाँड़, धूर्त (ठग) और राक्षस । 'जर्भरी, तुर्फरी' आदि पण्डितों की वाणी समझी जाती है ॥ २१ ॥ इस ( अश्वमेध ) में घोड़े के लिङ्ग को पली द्वारा ग्रहण कराने का विधान हैयह सब ग्रहण करने का विधान भाँड़ों का कहा हुआ है ॥ २२ ॥ [ यज्ञ में ] मांस खाना भी राक्षसों ( मांस के प्रेमियों) कहा हुआ है। इसलिए बहुत से प्राणियों के कल्याण के लिए चार्वाक-मतका आश्रय लेना चाहिए, यही अच्छा है। . इस प्रकार सायण-माधव के बनाये हुए सर्वदर्शन-संग्रह में चार्वाक दर्शन समाप्त हुआ। विशेष-'जर्भरी' आदि से चार्वाकों का संकेत ऋग्वेद के इस मन्त्र पर है
सृण्य॑व जरों तुर्फरौतू नतोशेव तुर्फरी पर्फरीका।
उदन्यजेव जेमना मदेरू ता में जरास्वजरं मरायु ॥ (१०।१०६।६ ) हे दोनों अश्विनीकुमार ! आप (सण्यौ इव) अंकुश के योग्य मत्त हाथी के समान हैं, ( जरी ) शरीर को झुकानेवाले हैं, ( तुर्फरीतू ) मारनेवाले हैं, (नेतोशौ इव ) अत्यन्त सन्तोषदाता पुरुष के पुत्रों के समान (तुर्फरी ) शत्रुओं के विनाशक हैं और (पर्फरीका ) धन से भरनेवाले हैं । (उदन्यजी इव ) जल से उत्पन्न वस्तुओं से निर्मल हैं, (जेमना) विजय करनेवाले हैं, ( मदेरू) मत्त या स्तवनीय हैं ( ता = तौ ) वे दोनों अश्विनीकुमार ( मे ) मेरे ( जरायु) बुढ़ापे से युक्त ( मरायु ) मरणशील शरीर को (अजरं ) जरामरण रहित कर दें।
इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसङ ग्रहस्य
प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां चार्वाकदर्शनमवसितम् ॥