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चार्वाकदर्शनम् १६. गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पायेयकल्पनम् ।
गेहस्थकृतश्राद्धन पथि तृप्तिरवारिता ।। १७. स्वर्गस्थिता यदा तृप्ति गच्छेयुस्तत्र दानतः ।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते ?॥ १८. यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः ? १९. यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।
__कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः ? ॥ [विदेश ] जाने वाले लोगों के लिए पाथेय ( मार्ग का भोजन ) देना व्यर्थ है, घर में किये गये श्राद्ध से ही रास्ते में तृप्ति मिल जायगी ॥ १६ ॥ स्वर्ग में स्थित (पितृगण ) यदि यहाँ दान कर देने से तृप्त हो जाते हैं तो महल के ऊपर ( कोठे पर ) बैठे हुए लोगों को यहीं पर क्यों नहीं दे देते हैं ? ॥ १७ ॥ जब तक जीना है सुख से जीना चाहिए, ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए ( विलास करें), क्योंकि ( मरने पर ) भस्म के रूप में परिणत शरीर फिर [ संसार में ऋणशोध के लिए ] कैसे आ सकता है ? ॥ १८ ॥ [यदि आत्मा शरीर से पृथक है आर शरीर से निकल कर दूसरे लोक में चला जाता है तब बन्धुओं के प्रेम से व्याकुल होकर लौट क्यों नहीं आता ? ॥ १९ ॥
२०. ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणविहितस्त्विह।
मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित् ॥ २१. यो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः।
जर्भरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम् ।। निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते । स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ? ॥ तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः ।
कुर्याच्छाद्ध श्रमायान्नं न वहेयुः प्रवासिनः ।। "हिंसा से भी धर्म होता है-यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है। अग्नि में हवि जलाने से फल होगा -यह भी बच्चों की सी बात है। अनेक-यज्ञों के द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्र को शमी आदि काठ का ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खाने वाला पशु ही अच्छा है । यदि यज्ञ में बलि किये गये पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता ? यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करने से भी किसी पुरुष की तृप्ति हो सकती है तो विदेश-यात्रा के समय खाद्यपदार्थ ले जाने का परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है; पुत्रगण घर पर ही श्राद्ध कर दिया करें?"