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रसार्णवसुधाकरः
सुभद्रा के समान पृथ्वी पर विख्यात अन्नमाम्बा नामक उनकी पत्नी राजाओं में उज्ज्वल कीर्ति वाले पति को आनन्दित करती थी॥२४-२५॥
तयोरभूतां पुत्रौ द्वावाद्यो देवगिरीश्वरः ।
द्वितीयस्त्वद्वितीयोऽसौ यशसा शिङ्गभूपतिः ।।२६।। उनके दो पुत्र हुए- १.देवगिरीश्वर और २.अद्वितीय यशवाला शिङ्गभूपति (शिङ्गभूपाल)॥२६॥
अथ श्रीशिकभपालो दीर्घायर्वसधामिमाम ।
निजांसपीठे निर्व्याजं कुरुते सुप्रतिष्ठिताम् ।। २७।।
दीर्घायु शिङ्गभूपाल ने सतर्कतापूर्वक इस पृथ्वी के भार को अपने कन्धों पर सुप्रतिष्ठित (धारण) किया।॥२७॥
अहीनज्याबन्यः कनकरुचिरं कार्मुकवरं बलिध्वंसी बाणः परपुरमनेकं च विषयः । इति प्रायो लोकोत्तरसमरसन्नाहविधिना
महेशोऽयं शिक्षितिप इति यं जल्पति जनः ।।२८।।
कसकर बँधी हुई (अहीन) प्रत्यञ्चा वाली सुवर्णनिर्मित होने के कारण रुचिर श्रेष्ठ धनुष, प्राणियों को विनष्ट करने वाले बाण, लक्ष्य बने शत्रुओं के अनेक नगर- इस प्रकार प्राय: लोकोत्तर युद्ध की तैयारी के द्वारा यह शिगभूपाल महेश (शङ्कर) हैं- इस प्रकार जिसके विषय में लोग कहते हैं।॥२८॥
यत्र च रणसन्नाहिनि तृणचरणं निजपुराच्च निस्सरणम् ।
वनचरणं तच्चरणपरिचरणं वा विरोधिनां शरणम् ।।२९।।
जिस शिङ्गभूपाल के युद्ध के लिए तैयार हो जाने पर घास खाना, अपने नगर से निकल जाना, वन में घूमना अथवा उस (शिङ्गभूपाल) के चरणों की सेवा करना ही विरोधी राजाओं का आश्रय होता था।।२९॥
सतां प्रीतिं कुर्वन् कुवलयविकासं विरचयन् कलाः कान्ताः पुष्णन् दधदपि जैवातृककथा । नितान्तं यो राजा प्रकटयति मित्रोदयमहो
तथा चक्रानन्दानपि च कमलोल्लाससुषमाम् ।।३।।
सज्जनों से प्रीति करते हुए, पृथिवी (के लोगों) का विकास करते हुए, कलाओं और पत्नियों का पोषण करते हुए, चन्द्रमा की कथाओं (कलाओं) को धारण करते हुए जो राजा मित्रों के अत्यधिक अभ्युदय तथा आनन्द देने वाले कमलों के विकास की सुषमा को प्रकट करता था।॥३०॥