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रसार्णवसुधाकरः
यथा (रघुवंशे ३.२४)
रथाङ्गनाम्नोरिव भावबन्धनं बभूव यत्प्रेम परस्पराश्रयम् । विभक्तमप्येकसुतेन तत् तयोः
परस्परस्योपरि पर्यचीयत ।।382।। अत्र भेदकारणे सुतस्नेहे सत्यपि सुदक्षिणादिलीपयोः रतेरपरिहारेण भेदरतित्वम्। प्रेमा जैसे (रघुवंश ३.२४ में)
चकवा और चकई के समान सुदक्षिणा और दिलीप का हृदयाकर्षक पारस्परिक प्रेम एक पुत्र में बँट जाने पर भी एक दूसरे के ऊपर बढ़ता गया।।382।।।
यहाँ पुत्रस्नेह को भेद का कारण होने पर भी सुदक्षिणा और दिलीप में रति के प्रति सम्मान के कारण भेद रतित्व है।
अथ मानः
यत्तु प्रेमानुबन्धेन स्वातन्त्र्याधृदयङ्गम् ।।११०।।
बध्नाति भावकौटिल्यं सोऽयं मान इतीर्यते ।
(२) मान- प्रेमानुबन्ध से स्वतन्त्रता के कारण जो प्रिय भावकौटिल्य है, वही मान कहलाता है।।११०उ.-११पू.।।
यथा (किरातार्जुनीये ८/१९)
व्यपोहितुं लोचनतो मुखानिलैरपारयन्तं किल पुष्पजं रजः । पयोधरेणोरसि कचिदुन्मना
प्रियं जघानोन्नतपीवरस्तनी ।।383 ।। अपराधसम्भावनायामपि प्रेमकल्पितस्वातन्त्र्येणावज्ञाख्यं चित्तकौटिल्यम्। जैसे (किरातार्जुनीय ८.१९ में)
उन्नत और स्थूल पयोधरों वाली किसी दूसरी देवाङ्गना ने आँख से पुष्पराग को फूंककर निकाल सकने में असमर्थ अपने प्रियतम के वक्षस्थल में मुंह ऊंचा करके (पराग निकालने के बहाने) अपने स्तन से चोट किया।।383 ।।
यहाँ अपराध की सम्भावना होने पर भी प्रेमोत्पन्न स्वतन्त्रता के कारण अवज्ञा नामक चित्त की कुटिलता स्पष्ट है।
अथ प्रणयः
बाह्यान्तरोपचारैर्यत् प्रेम मानोपकल्पितैः ।।१११।।