Book Title: Rasarnavsudhakar
Author(s): Jamuna Pathak
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series

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Page 490
________________ तृतीयो विलासः [ ४३९ ] क्षपणक स्थूल (मांसल) और घने स्तनों वाली तथा भयभीत मृगी के समान चञ्चल नेत्रों वाली (कापालिनी)! यदि तुम कापालिनी के भाव में ही विचरण करोगी तो (यह ) श्रावक (भिक्षु) क्या करेगा। 1641 ।। - (अपने मन में) अहा ! यह केवल कापालिनी का दर्शन ही सौख्य (आनन्द) और मोक्ष देने का साधन है। (प्रकट रूप से) हे कापालिक ! इस समय में आप का दास हो गया हूँ। मुझको भी महाभैरव के अनुशासन में दीक्षित कर लीजिए। इत्यादि में यहाँ क्षपणक का अपने मार्ग को छोड़ना अवगलित है। अथावस्कन्दः अवस्कन्दस्त्वनेकेषामयोग्यस्यैकवस्तुनः 1 सम्बन्धाभासकथनात् स्वस्वयोग्यत्वयोजना ।। २७७।। (२) अवस्कन्द- एक ही आयोग्य वस्तु का अनेक लोगों द्वारा सम्बन्धों के आभास के कथन के कारण अपनी-अपनी योग्यतानुसार समायोजन करना अवस्कन्द कहलाता है।।२७७॥ यथा ( आनन्दकोशनाम्नि प्रहसने ) - यतिः-साक्षाद्भूतं वदति कुचयोरन्तरं द्वैतवादं बौद्धः-दृष्ट्योर्भेदः क्षणिकमहिमा सौगते दत्तपादः । जैनः-बाह्वोर्मूले नयति शुचितामार्हती कापि दीक्षा सर्वे-नार्भेर्मूलं प्रथयति फलं सर्वसिद्धान्तसारम् 11642 ।। अत्र यतिबौद्धजैनानां गणिकायां स्वसिद्धान्तधर्मसम्बन्धकथनेन स्वस्वपक्षपरिग्रयोग्यत्वयोजनादवस्कन्दः । जैसे (आनन्दकोश नामक ) प्रहसन में यति - (वेश्या के) दोनों स्तनों में प्रत्यक्षभूत द्वैतवाद अन्तर (भेद) होना कहते हैं। बौद्ध- क्षणिकवाद वाले सौगत (बौद्ध) में पैर रखने वाले (दीक्षित) दोनों दृष्टियों में भेद होना कहते हैं। जैन- कोई दीक्षित आर्हती (जैन मतावलम्बी) भुजाओं के मूल में शुचिता ( पवित्रता) को स्थापित करते हैं। सभी - नाभी के मूल में सभी सिद्धान्तों का मूलतत्त्व फल को फैलाते हैं (स्वीकारते हैं) ।।642 ।। यहाँ यति, बौद्ध और जैनों का वेश्या के प्रति अपने सिद्धान्तों के अनुसार गुण

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