________________
तृतीयो विलासः
[४४३]
ऐसा कहा है।।646।।
अत्र लोकप्रसिद्धनाश्वत्थदलपदमूलयोः साम्येन हेतुना लोकप्रसिद्धस्यैव भगवदधत्थयोरैक्यस्य साधनं हास्यकरणमुपपत्तिः।
यहाँ लोक प्रसिद्ध पीपल के दल और पद की समानता के कारण से लोकप्रसिद्ध ही भगवान् और पीपल की एकता को सिद्ध कर देना हास्यकारी उपपत्ति है।
अथ भयम्
स्मृतं भयं तु नगरशोधकादिकृतो दरः । (६) भय- नगर-रक्षियों इत्यादि से किया गया त्रास भय कहलाता है।।२८०पू.॥ यथा तत्रैव (आनन्दकोश नामि) प्रहसने
जैन:- अराजकोऽयं विषयः, यनगरपरिसराप्रिततपस्विनां धनं चोर्यते। (इत्यबाहुराक्रोशति)। नगररक्षका:- अये किमपहृतं धनम्। कियत् ? (इति नगररक्षकास्तं परितः प्रविश्य परिसर्पन्ति।) अरूपाम्बर:- मिक् कष्टम् नगरशोधकाः समायान्ति। (इत्यूर्षबाहुरोष्ठस्पन्दनं करोति।) (मिथ्यातीयों गणिकामाक्षिप्य समाधि नाटयति।) (निष्कच्छकीतिरकपादेनावर्तिष्ठमानः करागुलीगणयति।)
इत्यादौ जैनादीनां भयकथनाद् भयम्। जैसे वहीं (आनन्दकोश नामक) प्रहसन में
जैन- ओह! यह अराजकता का विषय है कि नगर की सीमा में रहने वाले तपस्वियों का धन चुरा लिया जाता है। (इस प्रकार हाथों को उठाकर आक्रोश करता है) नगररक्षक- क्या धन छीन लिया गया? कितना? (इस प्रकार नगररक्षक उसको चारो ओर से घेर कर आगे बढ़ते हैं)। अरूपाम्बर- अरे! कष्ट है। (ये तो) नगररक्षक आ रहे हैं। (भुजाओं को उठा कर होंठ को कॅपाता है मिथ्यातीर्थ वेश्या का आक्षेप करके समाधि लगाने का अभिनय करता है। निष्कच्छकीर्ति एक पैर पर खड़ा होकर हाथ की अङ्गलि पर गिनता है)।
इत्यादि में यहाँ जैन इत्यादि लोगों के भय का कथन होने से भय है। अथानृतम्
अनृतं तु भवेद् वाक्यमसत्यस्तुतिगुम्फितम् ।। २८०।।
तदेवानृतमित्याहुरपरे .. स्वमतस्तुतेः ।
(७) अनृत- असत्य स्तुति से गुम्फित वाक्य अनृत कहलाता है। अन्य (कतिपय) आचार्य अपने मत की प्रशंसा करने को स्तुति कहते हैं।।२८०उ.-२८१पू.।।
तथा तत्रैव (आनन्दकोशनाम्नि) प्रहसने
बालातपेन पारिमृष्टमिवारविन्दं