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रसार्णवसुधाकरः
कर रही है।।६५१॥
अत्र गदवाक्यं स्पष्टमेव ।
यहाँ गद्गद वाक्य स्पष्ट है। अथ प्रलापः
प्रलापः स्यादयोग्यस्य योग्यत्वेनानुमोदनम् ।। २८२।।
(१०) प्रलाप- अयोग्य (कथन) का योग्य (कथन) के द्वारा अनुमोदन करना प्रलाप कहलाता है।।२८२उ.।।
यथा तत्रैव' (आनन्दकोशनाम्नि प्रहसने)राजा- (सौदायोंद्रेकम्) अये बिडालाक्ष अस्मदीये नगरे विषये च
पतिहीना च या नारी जायाहीनश्च यः पुमान् । तौ दम्पती यथाकामं भवेतामिति घुष्यताम् ।।652।।
बिडालाक्ष:-देवः प्रमाणम्। (इति सानुचरो निकान्तः)। गुहाग्राही- (सश्लाघागौरवम्)
नष्टाश्वभग्नशटकन्यायेन प्रतिपादितम् । .
उचिता ते महाराज! सेयं कारुण्यघोषणा ।।653 ।। अपि च,
मन्वादयो महीपालाः शतयो गामपालयन् ।
न केनापि कृतो मार्ग एवमाश्चर्यसौख्यदः ।।654।। जैसे वहीं (आनन्दकोश नामक) प्रहसन में
राजा- (उदारता के अतिशय के साथ)- हे विडालाक्ष! हमारे नगर में (इस) विषय में
जो पति से रहित नारी है और जो पुरुष पत्नी से विहीन है, वे दोनों इच्छानुसार दम्पती (पति और पत्नी) हो जाए- ऐसी घोषणा कर दी जाय।।652।।
विडालाक्ष- (इस विषय में) देव (आप) प्रमाण हैं। (अनुचर के साथ निकल जाता है।) गुणग्राही- (प्रशंसा और गौरव के साथ)
विनष्ट हुए अश्व और टूटी हुई गाड़ी के न्याय का आप ने प्रतिपादन कर दिया है। हे महाराज! आप की करुणता-पूर्वक घोषणा उचित है।।653।।
और भी
मनु इत्यादि सैकड़ों राजाओं ने पृथ्वी का पालन किया किन्तु किसी ने भी इस प्रकार के आश्चर्यजनक और आनन्ददायक मार्ग को नहीं बनाया।।654।।