Book Title: Rasarnavsudhakar
Author(s): Jamuna Pathak
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series

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Page 495
________________ [ ४४४] रसार्णवसुधाकरः माञ्जिष्ठचेलमिव मान्मथमातपत्रम् । सालक्तलेखमिव सौख्यकरण्डमद्य यूनां मुदे तरुणि! तत्पदमार्तवं ते ।।647 ।। अत्र आर्तवारुणस्योरुमूलस्य वर्णनादिदमनृतम् । जैसे वहीं (आनन्दकोश नामक) प्रहसन में 'हे तरुणि! सूर्य की धूप से स्पर्श किये गये कमल के समान, माञ्जिष्ठ वस्त्र वाले कामदेव के छाते (छतरी) के समान और अलक्तक की रेखा वाली प्रसन्नता की टोकरी के समान तुम्हारा पद रूपी पुष्प आज युवकों की प्रसन्नता के लिए कारण है।।647।। यहाँ पदमूल पुष्प की अरुणिमा का असत्य वर्णन होने के कारण यह अनृत है। अपरं तु यथा कर्पूरमार्याम्(१/२३) भैरवानन्दः रण्डा चण्डा दिक्खिआ धम्मदारा मज्जं मंसं पिज्जए खज्जए अ । हिक्खा भोज्जं चम्मखण्डं च सेज्जा कोलो धम्मो कस्स णो होइ रम्मो ।।648।। (रण्डा चण्डा दीक्षिता धर्मदारा मद्यं मांसं पीयते खाद्यते च। भिक्षा भोज्यं चर्मखण्डं च शय्या । कौलो धर्मः कस्य नो भवति रम्य:।।) दूसरे मत के अनुसार जैसे कर्पूरमञ्जरी (१.२३)मेंभैरवानन्द रण्डा (विधवा), चण्डा और तान्त्रिक दीक्षा वाली स्त्रियाँ हमारी धर्मपत्नियाँ हैं, भिक्षा का अन हमारा भोजन है, चर्मखण्ड हमारी शय्या है, मद्य पीते हैं और मांस खाते हैं। हमारा यह कुलक्रम से आया हुआ धर्म किसको अच्छा नहीं लगता है, अर्थात् सबको अच्छा लगता है।।648 ।। अथ विभ्रान्ति: वस्तुसाम्यकृतो मोहो विभ्रान्तिरिति गीयते ।। २८१।। (८) विभ्रान्ति- वस्तु की समानता के कारण उत्पन्न भूल विभान्ति कहलाता है।।२८१उ.।। यथा तत्रैव (आनन्दकोशनाम्नि) प्रहसनेबौद्धः- (पुरोऽवलोक्य) हेमकुम्भवती रम्यतोरणा चारुदर्पणा ।

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