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रसार्णवसुधाकरः
गृहीतमित्ययं विप्रलम्भः। ........
(फिर विवृत मुख होकर नाँचती है) निष्कच्छकीर्ति- हे दोनों व्रतधारियों! क्या करना चाहए? मिथ्यातीर्थः- वेद (प्रतिपादित यज्ञ में हिंसा) का पक्ष (आश्रय) लेना ही (उचित) है। अरूपाम्बर- (अपने मन में) क्या करूँ? हाथ में पैसे इत्यादि भी नहीं है। (प्रकट रूप से) जीवहिंसा के लिए वेद का सहारा लेना मेरे मत से ठीक नहीं है। मिथ्यातीर्थ- हे अहिंसा का पक्ष लेने वाले! मरते हुए जीव की रक्षा नहीं करनी चाहिए।
क्या यह तुम्हारा धर्म है? अरूपाम्बर- (आक्षेप के साथ) एक हाथ से सुख लो और दूसरे से धन दो यही तुम्हारा धर्म है। (निष्कच्छकीर्ति छिपाये हुए अपने धन को तथा सन्यासी के धन को उस पुरानी (अथवा कठोर यक्षिणी) के वस्त्रों के आँचल में बाँध कर बलपूर्वक जैन के कुण्डल को उसके पादों में दे देता है) मधुमल्लिका- अङ्ग-भङ्ग को सामान्य करके तथा मानो भय का स्मरण करती हुई) अरी माँ! बिलम्ब करने से देवता कुपित हो जाएँगे। तो चिरण्डिका का तर्पण करने के लिए जा रही हूँ। (इस प्रकार कुण्डल लेकर निकल जाती है)।
इत्यादि में भूतावेश के छल से जैन, बौद्ध और सन्यासी को विलोभित करके किसी गणिका के द्वारा धन ले लिया गया अत: यह विप्रलम्भ है।
अथोपपत्ति:
उपपत्तिस्तु सा प्रोक्ता यत् प्रसिद्धस्य वस्तुनः ।
लोकप्रसिद्धया युक्तया साधनं हास्यहेतुना ।। २७९।।
(५) उपपत्ति:- हास्य के निमित्त अत्यधिक प्रसिद्ध कथावस्तु को (अपनी) युक्ति से सिद्ध कर देना उपपत्ति कहलाता है।।२७९।।
यथा तत्रैव (आनन्दकोशनाम्नि) प्रहसने
मिथ्यातीर्थ:- (पुरोऽवलोक्य) अये उपसरित्तीरं पिप्पलनामा वनस्पतिः, यह गीतासु भगवता निजविभूतितया निर्दिः। (विचिन्त्य) कथमस्य तरोरियमतिमहिमासम्भावना। (विमृश्य) उपपद्यत एव,
तत्पदं तनुमध्याया येनाश्वत्थदलोपमम् ।
तदश्वत्थोऽस्मि वृक्षाणामित्यूचे भगवान् हरिः ।।646।। जैसे वहीं (आनन्दकोश) प्रहसन में
मिथ्यातीर्थ- (सामने देख कर) यह सरिता के तट पर पीपल नाम की वनस्पति है जो गीता में भगवान् की विभूति के रूप में निर्दिष्ट है। (सोचकर) इस वृक्ष की इस अत्यधिक महत्व की सम्भावना कैसे हुई? (याद करके)
___ जिस (चञ्चलता के) कारण पतले कमर वाली (रमणी) के पैर की पीपल के नीवन पत्र से उपमा दी जाती है उसी (चञ्चलता के कारण) से 'मैं वृक्षों में पीपल हूँ' भगवान् कृष्ण ने