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तृतीयो विलासः
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समान वेष-धारण करके पेट भरने वाले हैं। (पीपल की जड़ के चबूतरे पर बैठता है)।
यहाँ यति, बौद्ध और जैन का (परस्पर) वार्तालाप व्यवहार है। अथ विप्रलम्भः
विप्रलम्भो वञ्चना स्याद भूतावेशादिकैतवात् ।। २७८।।
(४) विप्रलम्भ- भूत के आवेश इत्यादि के द्वारा छल से ठगना विप्रलम्भ कहलाता है।।२७८उ.।।
यथा (तत्रैव आनन्दकोशनाम्नि) प्रहसने
प्रियाहं सर्वभूतानां नाम्ना स्वच्छन्दभक्षिणी । गृह्णाम्येनां यदि त्रातुं कृपा वः श्रूयतामिदम् ।।643।। सुराघटानां सप्तत्या विंशत्या दृप्तगडरैः । छागैश्च दशभिः कार्या चिरण्टीतर्पणक्रिया ।।644।। अद्य कर्तुमशक्यं चेत् तत्पर्याप्ततमं धनम् ।
आस्थाप्यमस्याः यक्षिण्या जरठायाः पटाञ्चले ।।645।। जैसे वहीं (आनन्दकोश) प्रहसन में
स्वच्छन्दभक्षिणी नाम से मैं सभी प्राणियों की प्रिया हूँ। मैं इसको पकड़ रही हूँ। यदि तुम लोग (इसे) बचाने की कृपा करना चाहते हो तो यह सुनो।।643 ।।
बीस मदोन्मत्त भेड़ों के साथ सत्तर शराब के घड़ों से और दस बकरों द्वारा चिरण्टी (तरुणी होने पर भी पिता के घर रहने वाली स्त्री) का तर्पण कार्य करना चाहिए।।644।।
___ यदि आज करने में असमर्थ हो तो अधिकाधिक धन इस पुरानी (या कठोर) यक्षिणी के वस्त्र के अञ्चल में रख देना चाहिए।।645।।
(इति पुनरपि व्यात्तवदनं नृत्यति।) निष्कच्छकीर्तिः-प्रतिनी! किमुत विधेयम्। मिथ्यातीर्थ:- प्रत्याम्नायपक्ष एव युज्यते। अरूपाम्बरः- (आत्मगतम्) किं करोमि न किमपि हस्ते पणादिकम्। (प्रकाशम्) भोः! जीवहिंसाकृते प्रत्याम्नायकरणमपि न मे सम्मतम्। मिथ्यातीर्थ:- भोः अहिंसावदिन! प्रियमाणः प्राणी न रक्षणीय इति किं युष्मद्धर्मः। अरूपाम्बरः-(साक्षेपम्) एकेन सुखमुपादेयम् अन्येन पनं प्रदेयमिति युष्मधर्मः। (निष्कच्छकीर्तिः सान्तहसिं स्वपनं यतिधनं च जरठायाः पटाशले बद्ध्वा सबलात्कार जैनस्य कटकं तस्याः पादमूलेऽपयति)। मधुमल्लिका- (सामगप्रकृतिमुपगम्य सस्मरणभयमिव) अम्मो देवदा विलंबेण कुप्पिस्सदि। ता चिरंटिआतप्पणं काढुं गच्छमि। (अम्हो देवता विलम्बेन कोपयिष्यति। तल् चिरण्डिकातर्पणं कर्तुः गच्छामि) (इति कटकमादाय निक्रान्ता।)
इत्यादौ भूतावेशकतवेन जैनबौद्धसन्यासिनो विलोभ्य धनं कयापि गणिकया