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तृतीयो विलासः
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कापि गन्धर्वनगरी दृश्यते भूमिचारिणी ।।649।।
जैन:- अयि क्षणभङ्गवादिन्! एतदुत्पातफलं प्रथमदर्शिनो भवत एव परिणमेत्। (इति लोचने निमीलयति।) बौद्धः- (पुनर्निर्वर्ण्य) हन्त किमपदे भ्रान्तोऽस्मि।
___ न पुरीयं विशालाक्षी न तोरणमिमे ध्रुवौ ।
न दर्पणमिमौ गण्डौ न च कुम्भाविमौ स्तनौ ।।650 ।। इत्यत्र बौद्धस्य मोहो विभ्रान्ति । जैसे वहीं (आनन्दकोशनामक) प्रहसन मेंबौद्ध- (सामने देखकर)
सुवर्ण के कुम्भ से युक्त, रमणीय तोरण वाली और सुन्दर दर्पण वाली यह कोई गन्धर्वो की नगरी (उल्का) भूमि पर विचरण करती हुई दिखलायी पड़ रही है है।।649।।
जैन- अरे! क्षणभङ्गवादिन! इस उत्पात फल (उल्कापात) को पहली बार देखने वाले आप को ही परिणाम मिले। (आँखे मलकाता है)
बौद्ध- (फिर देख कर) क्या मैं अस्थान (अकारण) ही भ्रमित हो गया हूँ?
यह (गन्धर्वो की ) पुरी नहीं है, यह तो विशाल नेत्रों वाली (रमणी) है, ये तोरण नहीं है, ये तो (रमणी) की दोनों भौंहें हैं। ये दोनों दर्पण नहीं है ये दोनों तो (रमणी) के गाल हैं। ये कुम्भ नहीं है ये दोनों तो रमणी के स्तन है।।650।।
यहाँ बौद्ध का मोह विभ्रान्ति है। अथ गद्गदवाक्___ असत्यरुदितोन्मिनं वाक्यं गद्गदवाग् भवेत् ।
(९) गद्गदवाक्- असत्य और रोदन से मिश्रित वाक्य गद्गद वाक्य कहलाता है।।२८२पू.॥
यथा तत्रैव (आनन्दकोशनाम्नि) प्रहसने(भगिन्यौ परस्परमाश्लिष्य रुदित इव) गुहाग्राही- (आत्मगतम्)
अनुपात्तबाष्पकणिकं गद्गदनिःश्वासकलितमव्यक्तम् । __ अनयोरसत्यरुदितं सुरतान्तदशां व्यनक्तीवं ।।651 ।। जैसे (आनन्दकोश नामक) प्रहसन में(दो बहने परस्पर चिपक कर मानों रो रहीं हैं) गुहयग्राही- (अपने मन में)
गिरते हुए आँसुओं की बूंदों से युक्त, गद्गद तथा निःश्वास के कारण रुकी हुई और अस्पष्ट इन दोनों की रुलाई इनकी सुरतान्त (सम्भोग के अन्त) की अवस्था को मानों प्रकट