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तृतीयो विलासः
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लोग कपट चिह्न वाले जैनों की भाषा भी प्राकृत ही मानते हैं।।३०७उ.-३०८पू.।।
(शौरसेनी)
अधमे मध्यमे चापि शैरसेनी प्रयुज्यते ।।३०८।।
(२) शौरसेनी- अधम और मध्यम (श्रेणी के लोगों ) में शौरसेनी भाषा ही प्रयोग में लायी जाती है।।३०८उ.।।
(मागधी)
धीवराद्यतिनीचेषु मागधी च नियुज्यते ।
(३) मागधी- धीवर इत्यादि अत्यधिक नीच पात्रों में मागधी भाषा नियोजित की जाती है।३०९पू.॥
(पैशाचीचूलिकापैशाच्यौ)___ रक्षःपिशाचनीचेषु पैशाचीद्वितयं भवेत् ।।३०९।।
(४-५) पैशाची और चूलिका पैशाची- राक्षस, पिशाच और नीचों में पैशाची और चूलिका पैशाची का प्रयोग होता है।३०९पू.॥
अपभ्रंशस्तु चण्डालयवनादिषु युज्यते । (६) अपभ्रंश- चाण्डाल, यवन इत्यादि में अपभ्रंश का प्रयोग होता है।।३१०पू.।। (भाषाव्यतिक्रमः)
नाटकादावपभ्रंश- विन्यासस्यासहिष्णवः ।।३१०।। अन्ये चण्डालकदीनां मागध्यादी प्रयुज्जते । सर्वेषां कारणवशात् कार्यों भाषाव्यतिक्रमः ।।३११।। महात्म्यस्य परिभ्रंशो मदस्यातिशयस्तथा । प्रच्छादनं च विभ्रान्तिर्यथालिखितवाचनम् ।।३१२।।
कदाचिदनुवादं च कारणानि प्रचक्षते ।
भाषा का व्यक्तिक्रम- नाटक इत्यादि में अपभ्रंश के विन्यास को न मानने वाले कुछ अन्य आचार्य के मत में मागधी इत्यादि भाषाओं का प्रयोग करना चाहिए। कारण विशेष से सभी पात्रों की भाषा में व्यतिक्रम कर देना चाहिए। महत्ता (गौरव) का परिभ्रंश, मद की अधिकता, प्रच्छादन (छिपाना), विभ्रान्ति (जल्दीबाजी), यथा लिखित का वाचन, कभीकभी अनुवाद- ये (भाषा व्यतिक्रम के) कारण कहे गये हैं।।३१०उ.-३१३पू.।।
अथ निर्देशपरिभाषासाक्षादनाममाह्याणां जनानां प्रतिसंज्ञया ।।३१३।। आह्वानभङ्गी नाट्यनिर्देश इति गीयते ।
रसा.३२