Book Title: Rasarnavsudhakar
Author(s): Jamuna Pathak
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series

View full book text
Previous | Next

Page 489
________________ [ ४३८] रसार्णवसुधाकरः दूषणं त्यजनं चात्र द्विधावलगितं मतम् ।। २७६।। (१) अवगलित- पहले अपने ग्रहण किये गये व्यवहार (आचरण) का मोहवशात दूषण (निन्दा करना) और त्यजन (छोड़ देना) अवगलित कहलाता है। यह दो प्रकार का होत है- दूषण और त्यजन॥२७६॥ दूषणम्य थानन्दकोशनामनि प्रहसनेमिथ्यातीर्थ: यानि द्यन्ति गलादधः सुकृतिनो लोम्नां च तेषा स्थिति यान्यूध्वं परिपोषयन्ति पुरुषास्तेषां मुहुः खण्डनम् । कृत्वा सर्वजगद्विरुद्धविधिना सञ्चारिणां मादृशां श्रीगीता च हरीतकी च हरतो हन्तोपभोग्यं वयः ।।640।। अत्र केनापि यतिभ्रष्टेन स्वगृहीतस्य यत्याश्रमस्य दूषणादिदमवलगितम्। दूषण से जैसे आनन्दकोश नामक प्रहसन मेंमिथ्यातीर्थ जो (कार्य) सज्जनों के अन्तःकरण में प्रकाशमान (रुचिकर) होते हैं (मेरे लिए) उनकी स्थिति रोएँ (बाल) के समान थी और सत्पुरुष जिन (बातों) को ऊपर से परिपुष्ट करते हैं उनका बारबार खण्डन करके सम्पूर्ण संसार का विरोध करने के साथ घूमते हुए मेरे समान गीता और हरीतकी को ढोते हुए लोगों की सम्पूर्ण अवस्था (उप्र) व्यतीत कर दी गयी, यह खेद है।।640।। यहाँ किसी भ्रष्ट यति (सन्यासी) द्वारा अपने द्वारा ग्रहण किये गये यति- आश्रम (सन्यास- आश्रम) को दूषण (निन्दा) इत्यादि करने के कारण अवगलित है। क्षपणकः अयि पीणघणत्थणसोहणि! पलितत्थकुलंगविलोअणि! । जदि लमसि कावालिणीभावेहिं किं कलिस्सदि शापकः ।।641 ।। (अयि पीनघनस्तनशोभने! परित्रस्तकुरङ्गविलोचने! । यदि रमसे कापालिनीभावे किं करिष्यति श्रावकः ॥ (स्वगतम्) अहो कावालिणीए दस्सणं एवं एक्कं सौक्खमोक्खसाहणं (प्रकाशम्) भो आआलिए! हरगे तुज्झ संपदं दासो संवुत्तो मंपि महालवाणं सासणे दिक्खेस। (अहो! कापालिनीदर्शनमेव एकं सौख्यमोक्षसाधनम् (प्रकाशम्) भोः कापालिका अहं तव साम्प्रतं दासः संवृत्तः। मामपि महाभैरवानुशासने दीक्षय)। इत्यादौ क्षपणकस्य स्वमार्गपरिभ्रंशोऽवलगितम्। त्यजन से जैसे प्रबोषचन्द्रोदय (३.१९) में

Loading...

Page Navigation
1 ... 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534