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तृतीयो विलासः
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परापेक्षाव्युदासाथ तन्निदर्शनमुच्यते ।
(१०) निदर्शन- जहाँ दूसरे की उपेक्षा के प्रतिषेध के लिए प्रसिद्ध अर्थों की कल्पना की जाती है वह निदर्शन कहलाता है।।१०६उ.-१०७पू.।।
यथाभिज्ञानशाकुन्तले (१/२५)
मनषीषु कथं वा स्यादस्य रूपस्य सम्भवः ।
न प्रभातरलं ज्योतिरुदेति वसुधातलात् ।।579।। अत्र प्रतिवस्तुन्यायेन सदृशवस्तुकीर्तनं निदर्शनम् । जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल १/२५ में
भला कैसे मानुषियों में इस सौन्दर्य की उत्पत्ति हो सकती है। प्रकाश से चञ्चल ज्योति (बिजली) पृथ्वी-तल से उदित नहीं होती।।579।।
यहाँ दूसरी वस्तु के न्याय से समान वस्तु का कथन होना निदर्शन है। अथ सिद्धिः
अतर्कितोपपन्नः स्यात् सिद्धिरिष्टार्थसङ्गमः ।।१०६।।
(११) सिद्धि- अचानक प्राप्त हुए अभीष्ट अर्थ (उद्देश्य)का समागम सिद्धि कहलाता है।।१०७उ.।।
यथा मालविकाग्निमित्रे (३/५पद्यादनन्तरम्)
_ 'विदूषकः- (दृष्ट्वा) ही हीवअस्सं एदं क्खुसीहुपाणुव्वेजिदस्य मछडिआ उवणदा, (आश्चर्यमाश्चर्य वयस्य एतत्खलु सीधुपानोवजितस्य मत्स्यपिण्डकोपनता)। राजा- अये किमेतत्। विदूषकः- एसा णादिपरिक्खिदवेसा असुअवअणा एआइणी मालविआ अदूरे वट्टइ- (एषा नातिपरिष्कृतवेषोत्सुकवदनैकाकिनीमालकिकाऽदूरे वर्तते)। राजा- (सहर्षम्) किं मालविका।।
विदूषकः- अह (अथ किम) 'राजा- शक्यमिदानी जीवितमवलम्बितुम्। इत्यत्रेरावतीसङ्केतं गच्छतो राज्ञो मालविकादर्शनसिद्धिरचिन्तिता सिद्धिः। जैसे मालविकाग्निमित्र में ३/५ पद्य से पूर्व
विदूषकः- (देखकर) आश्चर्य है महान् आश्चर्य है। यह तो मदमस्त व्यक्ति के समक्ष मानो मिश्री रखी हुई है। राजा- अरे! यह क्या? विदूषक- साधारण वेष में तथा उत्कण्ठित मुख लिये हुए अकेली मालविका अत्यधिक निकट ही विद्यमान है। राजा(प्रसन्नता पूर्वक)- अरे! क्या मालविका यहाँ है। विदूषक- और क्या ? राजा- अब मैं जीवन-धारण करने में समर्थ हो सकता हूँ।
यहाँ इरावती द्वारा दिये गये संकेतस्थल पर गये हुए राजा का मालविका के दर्शन की सिद्धि अचिन्तित सिद्धि है।