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रसार्णवसुधाकरः
समए ताए उम्मादइत्यरूवं दक्खिा (ततो वसन्तोदाररमणीये समये तस्याः उन्मादायितृकंरूपं प्रेक्ष्य)। (इत्योक्ते लज्जया विरमति) राजा- भवतु, परस्ताद्विभाव्यत एव।'
इत्यत्रानुक्तस्यापि मेनकाविश्वामित्रसङ्गमस्य प्रतीतेरियमनुक्तसिद्धिः। जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल में (१/२५ पद्य से पूर्व)
अनसूया- हे आर्य! पहले उस राजर्षि के उग्र तपस्या में लीन होने पर कुछ उत्पन्न शङ्का वाले देवताओं के द्वारा नियम (व्रत). भङ्ग करने वाली मेनका नामक अप्सरा भेजी गयी। राजा- दूसरों की तपस्या (समाधि) से देवताओं का भयभीत होना सुना जाता है। तब-तब फिर। अनसूया- तत्पश्चात् वसन्त के रमणीय समय में उसके उन्मादक रूप को देख कर (इस आधी बात को कह कर लज्जा के कारण रुक जाती है)। राजा- ठीक है, आगे का समाचार ज्ञात हो गया।
यहाँ अनुक्त मेनका और विश्वामित्र के समागम की प्रतीति अनुक्त-सिद्धि है। अथ सारूप्यम्
दष्टश्रुतानुभूतार्थकथनादिसमुद्भवम् ॥१२१।।
सादृश्यं यत्र संक्षोभात् तत् सारूप्यं निरूप्यते ।
(३१) सारूप्य- भ्रम के कारण देखने, सुनने या अनुभूत अर्थ के कथन से उत्पत्र जो सादृश (समानता) है वह सारूप्य कहलाता है।।१२१उ.-१२२पू.॥
यथा वेणीसंहारे (६.२८)
(प्रविश्य गदापाणिः भीमः) भीम:- तिष्ठ-तिष्ठ! भीरु! क्वेदानीं गम्यते। (केशेषु ग्रहीतुमिच्छति)। युधिष्ठिरः- (बलाद् भीममालिङ्ग्य) दुरात्मन्! भीमार्जुनशत्रो! दुर्योधनहतक!
आशैशवादनुदिनं जनितापराधः क्षीबो बलेन भुजयोर्हतराजपुत्र! आसाद्य मेऽन्तरमिदं भुजपञ्जरस्य
जीवन् प्रयासि न पदात्पदमद्य पाप ।।594।। भीमः- अये कथमार्यः सुयोधनशकया निर्दयं मामलिङ्गति।
इत्यत्र चार्वाकशापितदुर्योधनविजयसक्थनसंक्षोभेण युधिष्ठिरादीनां भीमे सुयोधनबुद्धिकथनादिदं सारूप्यम्।
जैसे वेणीसंहार में
(हाथ में गदा लिये हुए प्रवेश करके) भीम- रुको-रुको, अरे डरपोक! अब कहाँ जा रहे हो? (बालों को पकड़ना चाहता है) युधिष्ठिर- (बलपूर्वक भीम का आलिङ्गन करके) हे दुष्ट! भीम और अर्जुन का शत्रु नीच दुर्योधन!
हे पापी! वचपन से लेकर प्रतिदिन अपराधों को करने वाला, भुजाओं के बल से मतवाला, (अर्जुन और भीम रूप) राजपुत्रों को मारने वाला आज तुम मेरे भुजा रूपी पिजड़े के