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रसार्णवसुधाकरः
प्रौढ़ कवि के लक्षण के विषय में कुछ आचार्यों के मत- तर्क के द्वारा अपने उत्कर्ष को कहने वाला कवि प्रौढ़ कहलाता है- यह दूसरे आचार्यों का मत है॥१५०॥
यथा ममैव (रसार्णवसुधाकरे १/५५)
नेदानीन्तनदीपिका किमु तमस्सङ्घातमुन्मूलयेज्ज्योत्ना किं न चकोरपारणकृते तत्कालसंशोभिनी । बाला किं कमलाकरान् दिनमणिर्नोल्लासयेदञ्जसा
तत्सम्प्रत्यपि मादृशामपि वचः स्यादेव सत्प्रीतये ।।612।।
अत्र ज्योत्स्नादिदृष्टान्तमुखेन माधुयाँजप्रसादाख्यानां गुणानां स्वसाहित्ये रसौचित्येन सत्त्वं प्रतिपादयन्नयं कविः प्रौढ़ इत्युच्यते।
जैसे मेरे द्वारा (रसर्णवसुधाकर १/५५में)
अब तक कोई ऐसी दीपिका नहीं थी जो अन्धकार के समूह को जड़ से विनष्ट कर दे। तत्काल शोभायमान चाँदनी से क्या लाभ जो चकोर (के पान करने) के लिए उपयुक्त न हो। उस बाल सूर्य से क्या लाभ जो अपनी चमक से कमलों के समूह को प्रफुल्लित न करे तो इस समय मुझ जैसे की वाणी सज्जन लोगों को प्रसन्न करने के लिए समर्थ होवे।।612 ।।।
यहाँ ज्योत्स्ना इत्यादि दृष्टान्त द्वारा माधुर्य, ओज, प्रसाद, नामक गुणों का अपने साहित्य में रसौचित्य से सत्त्व के प्रतिपादन के कारण यह कवि प्रौढ़ है।
अथ विनीत:
विनीतो विनयोत्कर्षात् स्वापकर्षप्रकाशकः ।
(४) विनीत कवि- विनय के उत्कर्ष के कारण अपने अपकर्ष का प्रकाशन करने वाला कवि विनीत होता है।।१५१पू.।।
यथा रामानन्दे
गुणो न कश्चिन्मम वानिबन्धे लभ्येत यत्नेन गवेषितोऽपि । तथाप्यमुं रामकथाप्रबन्धं
सन्तोऽनुरागेण समाद्रियन्ते ।।613 ।। इत्यत्र विनयोत्कर्षमात्मन्यारोपयन् अयं कविर्विनीत इत्युच्यते। जैसे रामानन्द में
प्रयत्न द्वारा खोजे जाने पर भी मेरे प्रबन्ध में कोई गुण नहीं मिल सकता तथापि इस रामकथा के प्रबन्ध को सन्त लोग अनुराग- पूर्वक आदर देते हैं।।613 ।।
यहाँ अपने पर विनयोत्कर्ष को अरोपित करता हुआ यह कवि विनीत है।