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[४०८]
रसार्णवसुधाकरः
स्थापना।।१६२उ.॥
(तत्र प्रस्तावना)
विदूषकनटीपारिपाश्विकैः सह सैल्लपन् । स्तोकवीथ्यादिसहितान्यामुखाङ्गानि सूत्रकृत् ।।१६३।।
योजयेद् यत्र नाट्यज्ञैरेषा प्रस्तावना स्मृता ।
(१) प्रस्तावना- विदूषक, नटी और पारिपार्श्विक के साथ संलाप करता हुआ सूत्रकार (सूत्रधार) थोड़े वीथी इत्यादि के सहित आमुख के अङ्गों को जोड़ता है, उसे नाट्यज्ञों ने प्रस्तावना कहा है।।१६३-१६४पू.॥
(अथ स्थापना)
सर्वामुखाङ्गवीथ्यङ्गसमेतैर्वाक्यविस्तरैः ।।१६४।। सूत्रधारो यत्र नटीविदूषकनटादिभिः ।
सैल्लपन् प्रस्तुतं चार्थमाक्षिपेत् स्थापना हि सा ।।१६५।।
(२) स्थापना- आमुखों के सभी अङ्गों से युक्त वीथी के अङ्गों के साथ वाक्य विस्तार-पूर्वक जहाँ नटी, विदूषक तथा नट के साथ संलाप करता हुआ सूत्रधार प्रस्तुत अर्थ का प्रयोग करता है, वह स्थापना होती है।।१६४-१६५पू.॥
(अथ नाट्ये आमुखस्य योजनम् )शृङ्गारप्रचुरे नाट्ये योज्यः स्यादामुखक्रमः । रत्नावल्यादिके प्रायो लक्ष्यतां कोविदैरयम् ।।१६६।। वीराद्धतादिप्राये तु प्रायः प्रस्तावनोचिता । अनर्घराघवाद्येषु प्रायशो वीक्ष्यतामियम् ।।१६७।। हास्यबीभत्सरौद्रादिनाये तु स्थापना मता ।
वीरभद्रविजृम्भादौ स प्रायेण निरीक्ष्यताम् ।। १६८।।
नाट्य में आमुख की योजना- शृङ्गार रस की प्रचुरता वाले नाट्य में आमुखक्रम (प्रस्तावना) को जोड़ना चाहिए। (जैसे) रत्नावली इत्यादि में इसे देख लेना चाहिए। वीर और अद्भुत (रस) की अधिकता वाले (नाट्य) में प्रस्तावना का योजन ही उचित है। अनर्घराघव इत्यादि में इसे देख लेना चाहिए। हास्य, बीभत्स और रौद्र इत्यादि की प्रचुरता वाले (नाट्य) में स्थापना (का योजन) माना जाता है। वीरभद्रविजृम्भण इत्यादि में स्थापना को देख लेना चाहिए।।१६६-१६८॥
(अथ वीथ्यङ्गानि)
कथितान्यामुखाङ्गानि वीथ्यङ्गानि प्रचक्ष्महे । आमुखेऽपि च वीथ्यां च साधारण्येऽपि सम्मते।।१६९।।