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रसार्णवसुधाकरः
से बीज के उत्थापन को खोजना चाहते हैं। नटी- (प्रसन्नतापूर्वक) वह मुख का व्यापार कैसा हो? सूत्रधार- निश्चित ही इस शिशिर (ऋतु) का सहारा लेकर मानरूपी ध्रुव (गीत गाओ)।
इत्यत्रानन्दकोशबीजोत्थापनमुखव्यापाराणां रूपकबीजोत्थापन नुवागानार्थानामपि अन्यार्थप्रतीत्या हास्यकरत्वादयं व्याहारः।
यहाँ आनन्दकोश (प्रहसन) के बीज की उत्थापना के लिए मुखव्यापार रूपी बीजोत्थापन निमित्त ध्रुवगान के अर्थों की अन्यार्थ प्रतीति के कारण हास्यकर होने से व्याहार है।
अथ मृदवम्
दोषा गुणा गुणा दोषा यत्र स्युर्मेदवं हि तत् ।।१७९।।
(१३) मृदव- जहाँ दोष गुण रूप में और गुण दोष रूप में प्रस्तुत होता है, वह मृदव कहलाता है।।१७९उ.।।
यथानार्हाः केवलवेदपाठविधिना कीरा इव च्छान्दसाः शास्त्रीयाभ्यसनाच्छुनामिव नृणामन्योऽन्यकोलाहलः । व्यर्थ काव्यमसत्यवस्तुघटनात् स्वप्नेन्द्रजालादिवद्
व्याकीर्णव्यवहारनिर्णयकृते त्वेकैव कार्य स्मृतिः ।।635।। अत्र आर्यादिषु गुणरूपेष्वपि दोषत्वकथनान्मृदवमिदम्।
केवल वेदपारायण करने के कारण शुकों के समान छन्द को जानने वाले (वेदज्ञ) लोग समर्थ नहीं हैं, (रटकर) शास्त्र का अभ्यास करने के कारण मृदुताल या घंटी के समान लोगों (पुरुषों) का परस्पर कोलाहल होता है और असत्य कथावस्तु के संघटन के कारण स्वप्न में इन्द्रजाल के समान काव्य व्यर्थ है, अस्तव्यस्त व्यवहार के निर्णय के लिए तो केवल स्मरण ही किया जाता है।।635।।
यहाँ आर्या (छन्द) इत्यादि गुण के रूपों में भी दोषत्व का कथन होने से यह मृदव है। (वस्तुप्रपञ्चनोचितः कालः)
एवमामुखमायोज्य सूत्रधारे सहानुगे ।
निष्कान्तेऽथ तदाक्षिप्तैः पात्रैर्वस्तु प्रपञ्चयेत् ।।१८०।।
कथावस्तु प्रदर्शन का समय- इस प्रकार आमुख का आयोजन करके साथियों के साथ सूत्रधार के निकल जाने पर उसके द्वारा सङ्केतित विषयवस्तु का पात्रों द्वारा प्रदर्शन किया जाना चाहिए।।१८०॥
(वस्तुनो दैविध्यम् )
वस्तु सर्व विधा सूच्यरूपमसूच्यमिति भेदतः ।