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तृतीयो विलासः
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रसालङ्कारवस्तूनामुपलालनकाक्षिणाम् ।
कहीं अङ्क की ही कल्पना- प्रारम्भ में शुभ और उदात्त रसभाव की निरन्तर असूच्य (कथावस्तु) की प्रवृत्ति हो जाय तो पहले आमुख का विधान करके (बीज आदि से आक्षिप्त) रस, अलङ्कार और कथावस्तु के उपलालन की अभिलाषा करने वाले नाटक के कवियों को अङ्क का विधान कर देना चाहिए।।२०१उ.-२०२पू.।।
(अङ्कलक्षणम्)
जनन्यङ्कवदाधारभूतत्वादङ्क उच्यते ।।२०२।।
अङ्क का लक्षण- जिस प्रकार माता का अङ्क (गोंद) बच्चे के बैठने का आश्रय होता है उसी प्रकार अङ्क भी रस, अलङ्कार और कथा के उपलालन का आश्रय कहा जाता है।।२० २उ.।।
(अङ्कप्रदर्शनयोग्यवस्तु)
अङ्कस्तु पञ्चषैट्टिनरङ्गिनोऽङ्गस्य वस्तुनः । रसस्य वा समालम्बभूतैः पात्रैर्मनोहरः ।।२०३।।
संविधानविशेषः स्यात् तत्रासूच्यं प्रपञ्चयेत् ।
अङ्क प्रदर्शन योग्य कथावस्तु- जहाँ अङ्गी अथवा अङ्ग कथावस्तु के रस की वासना के आलम्बनभूत पाँच-छ: - या दो-तीन पात्रों द्वारा मनोहर संविधान-विशेष होता है उसी में असूच्य कथावस्तु का प्रदर्शन करना चाहिए।।२०३-२०४पू.॥
(अथासूच्यविभागः)__ असूच्यं तद् द्विधा दृश्यं श्राव्यं चाद्यं तु दर्शयेत् ।। २०४।।
असूच्य कथावस्तु का विभाग- असूच्य कथावस्तु दो प्रकार की होती है- दृश्य और श्रव्य । पहले वाली (दृश्य कथावस्तु) को दिखा देना चाहिए।।२०४उ.।। (श्राव्यस्य द्वैविध्यम् )
द्वेधा द्वितीयं स्वगतं प्रकाशं चेति भेदतः ।
श्रव्य के भेद- दूसरी श्रव्य (कथावस्तु) स्वगत और प्रकाश भेद से दो प्रकार की होती है।
(तत्र स्वगतम् )
स्वगतं स्वैकविज्ञेयम्
स्वगत- कथावस्तु केवल अपने द्वारा ही जानने योग्य होती है। (इसे पात्र दर्शकों को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि यह मन से सोची हुई बात के समान अन्य पात्रों को मालूम नहीं है)।
सर्वप्रकाशं नियतप्रकाशं चेति भेदतः ।