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रसार्णवसुधाकरः
अनेकशुद्धो विष्कम्भः षष्ठाङ्केऽनघराघवे ।। १८६।। निरूप्यतां सम्प्रयुक्तो माल्यवच्छुकसारणैः ।
शुद्ध विष्कम्भक- केवल मध्यम पात्रों द्वारा प्रयुक्त विष्कम्भक शुद्ध विष्कम्भक होता है। वह दो प्रकार का होता है- एककृत् और अनेककृत्। एककृत् शुद्ध विष्कम्भक रत्नावली में यौगन्धरायण द्वारा प्रयुक्त है और अनेककृत शुद्ध विष्कम्भक अनर्घराघव के षष्ठ अङ्क में प्रयुक्त हुआ है जो माल्यवान्, शुक तथा सारण द्वारा प्रयुक्त है।
अथ चूलिका
वन्दिमागधसूताद्यैः प्रत्याशीरन्तरस्थितैः ।।१८७।।
अर्थोपक्षेपणं यत्तु क्रियते सा हि चूलिका ।
(२) चूलिका- नेपथ्य में स्थित चारण मागध, सूत इत्यादि के द्वारा जो अर्थ का सङ्केत (उपक्षेपण) किया जाता है वह चूलिका कहलाता है।
सा द्विधा चूलिका खण्डचूलिका चेति भेदतः ।।१८८।।
चूलिका के प्रकार- वह चूलिका और खण्डचूलिका भेद से दो प्रकार की होती है।।१८८उ.॥
(तत्र चूलिका)
पात्रैर्जवनिकान्तःस्थैः केवलं या तु निर्मिता । आदावङ्कस्य मध्ये वा चूलिका नाम सा स्मृता ।।१८९।।
प्रवेशनिर्गमाभावादियमङ्काद् बहिर्गता ।।
(अ) चूलिका- नेपथ्य में स्थित पात्रों के द्वारा अङ्क के प्रारम्भ में अथवा मध्य में जो अर्थोक्षेपण (अर्थ का सङ्केत) होता है वह चूलिका नाम से प्रसिद्ध है। प्रवेश तथा निर्गमन के न होने से यह अङ्क के बाहर होती है।।१८९उ.-१९०पू.।।
अङ्कादौ चूलिका यथानघराघवे सप्तमात्रे (७.१)(नेपथ्ये)
तमिस्रामू लत्रिजगदगदकारकिरणे रघूणां गोत्रस्य प्रसवितरि देवे सवितरि । पुरस्स्थे दिक्पालैः सह परगृहावासवचनात् प्रविष्टा वैदेही दहनमथ शुद्धा च निरगात् ।।636।। अङ्क के प्रारम्भ में चूलिका जैसे (अनर्धराघव ७.१) में
(नेपथ्य में)- अन्धकार में डूबे लोकत्रय को प्रकाशित करने वाली किरणों से युक्त | भगवान् सूर्य के उदित होने पर जो सूर्य रघुवंश के आदि पुरुष है उनके प्रकाशित होते ही, समस्त