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तृतीयो विलासः
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अथासत्प्रलाप:
असम्बद्धकथालापोऽसत्प्रलाप इतीरितः ।।१७८।।
(११) असत्प्रलाप- (प्रायः एक के बाद) दूसरी असम्बद्ध (बेसिर पैर की बात) असत्प्रलाप कहलाती है।।१७८उ.।।
यथा वीरभद्रविजृम्भणे'नटः -
पत्नी परिलम्बिकुचा तनया मम दन्तुरापि तरुणवयाः ।
क्रीडाकविरस्ति गृहे तदहं नाट्यप्रयोगमर्मज्ञः ।।634।।
अत्र नटेन स्वकीयनाट्य- प्रयोगमर्मज्ञत्वे हेतुतया कथितानां क्रीडाकविसद्भावादीनामसम्बद्धत्वादयमसत्प्रलापः ।
जैसे वीरभद्रजृम्भण में
मेरी पत्नी लटकने वाले स्तनों से युक्त है और कन्या लम्बे-लम्बे दाँतों वाली होने पर भी तरुणी है। (इस प्रकार) घर में क्रीडा कवि ही है तो मैं नाट्य के अभिनय का मर्मज्ञ हूँ।।624।।
यहाँ नट के द्वारा अपनी नाट्य के अभिनय में मर्मज्ञता होने में सकारण कहे गये क्रीडा-कवि के सद्भाव इत्यादि का असम्बद्ध (बे सिर-पैर का) होने से यह असत्प्रलाप है।
अथ व्याहारः
अन्यार्थं वचनं हास्यकरं व्याहार उच्यते ।
(१२) व्याहार- जिसका प्रयोजन कुछ और होता है, ऐसे हास्यपूर्ण वचन को व्याहार कहते हैं।।१७९पू.॥
यथानन्दकोशनामनि प्रहसने
'(प्राविश्य) नटी- अय्य! को णिओओ। (आर्य को नियोगः)। सूत्रधारःआयें! गरिके! नूनमानन्दकोशसन्दर्शनाभिलाषिणी परिषदियम् ।
नटी- ता दंसेदु अय्यो, तदो कि विलंबेण (तदर्शयत्वार्यः। ततः किं विलम्बेन)। सूत्रधारः- अयि- गायिके! गगरिके! भवत्या मुखव्यापारेण बीजोत्थापनानुसन्यायिना भवितव्यम्।
नटी- (सहर्षम्) कीरिसो सो मुहवावारो। (कीदृशः स मुखव्यापारः)। सूत्रधारः- नन्वमुमेव शिशिरमधिकृत्य भुवामानरूपः' जैसे आनन्दकोश प्रहसन में
(प्रवेश करके) नटी- क्या काम है? सूत्रधार- हे आर्य गर्गरिके! यह सभा निश्चित ही आनन्दकोश (प्रहसन) को देखना चाहती है। नटी- तो आप दिखलाइए।
इसमें विलम्ब करने से क्या लाभ? सूत्रधार- हे गाने वाली गर्गरिके! तुम्हारे मुख