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तृतीयो विलासः
इस मध्यभाग को प्राप्त करके (अर्थात् मेरी भुजाओं के मध्य भाग में आकर ) जीते जी एक पग (भी) नहीं जा सकता।।(6.28)।।594।।
भीम- अरे ! क्या आर्य दुर्योधन की शङ्का से क्रोधवश निर्दयता पूर्वक मेरा आलिङ्गन कर रहे हैं।
यहाँ चार्वाक द्वारा दिये गये वर वाले दुर्योधन के विजय के कथन से क्रोध के कारण से युधिष्ठिर इत्यादि का भीम को दुर्योधन समझना सारूप्य है।
अथ माला
ईप्सितार्थप्रसिद्ध्यर्थं कथ्यन्ते यत्र सूरिभिः ।। १२२ ।। प्रयोजनान्यनेकानि सा मालेत्यभिसंज्ञिता ।
(३२) माला - अभीष्ट अर्थ की प्रसिद्धि के लिए जहाँ अनेक प्रयोजन कहे जाते हैं, आचार्यों ने उसे माला नाम से अभिहित किया है ।। १२२उ. १२३पू. ।
यथा धनञ्जयविजये (१६)गोरक्षणं समदशात्रवमानभङ्गः प्रीतिर्विराटनृपतेरुपकारितश्च पर्याप्तमेकमपि मे समरोत्सवाय
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सर्वं पुनर्मिलितमत्र ममैव भाग्यैः 1159511
जैसे धनञ्जयविजय (१६) में
गायों की सुरक्षा, मदयुक्त शत्रुओं का मानभङ्ग, विराट् राजा का प्रेम और (उनका ) उपकार (इनमें से) एक ही मेरे युद्ध में उत्सव के लिए पर्याप्त है, फिर यहाँ ये सभी मेरे भाग्य से मिल गये हैं । 1595 ।।
अथ मधुरभाषणम् -
यत्प्रसन्नेन सारूप्यं यत्र पूजयितुं वचः ।। १२३।।
स्तुतिप्रकाशनं तत्तु स्मृतं मधुरभाषणम् ।
(३३) मधुरभाषण- प्रसन्तापूर्वक सम्मान करने के लिए अनुरूप स्तुति का प्रकाशन मधुरभाषण कहलाता है ।। १२३उ.१२४पू.।।
यथा अनर्घराघवे
'दशरथ: - (सप्रश्रयम्) भगवन्! विश्वामित्र !
क्वचित्कान्तारभाजां भवति परिभवः कोऽपि शौवापदो वा प्रत्यूहेन क्रतूनां न खलु मखभुजो भुञ्जते वा हवींषि । कर्तुं या कच्चिदन्तर्वसति वसुमतीदक्षिणः सप्ततन्तु