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तृतीयो विलासः
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साक्षादेवोदेशेन प्राप्तधर्मसमन्वयात् । अङ्गाङ्गिभावसम्पन्नसमस्तरससंश्रयात् ।।१२८।। प्रकृत्यवस्थासन्ध्यादिसम्पत्त्युपनिबन्धनात् । आहुः प्रकरणादीनां नाटकं प्रकृतिं बुधाः ।।१२९।।
नाटक का प्राकृतत्व- साक्षात् रूप से उपदिष्ट, प्राप्त धर्मों से समन्वित, अङ्गाङ्गिभाव से सम्पन्न, सभी रसों के विश्राम का स्थल तथा प्रकृति, अवस्था, सन्धि इत्यादि सम्पत्ति से उपबन्धित होने के कारण विद्वानों ने नाटक को सभी प्रकरण इत्यादि (अन्य रूपकों) का मूल कहा है।।१२८-१२९॥
(रूपकान्तराणां नाटकं प्रति विकृतत्त्वम्)
अतिदेशबलप्राप्तनाटकाङ्गोपजीवनात् ।
अन्यानि रूपकाणि स्युर्विकारानाटकं प्रति ।।१३०।।
अन्य रूपकों का नाटक के प्रति विकारत्व- अतिदेश (एक वस्तु के धर्म का दूसरी पर आरोपण) से प्राप्त नाटकाङ्गों (नाट्य के अङ्गों) की वृत्ति के कारण (अर्थात् नाट्य के सभी तत्त्वों से युक्त होने के कारण नाटक से) अन्य रूपक नाटक के प्रति विकार होते हैं।।१३०॥
अतो हि लक्षणं पूर्वं नाटकस्याभिधीयते दिव्येन वा मानुषेण धीरोदात्तेन संयुतम् ।।१३१।। शृङ्गारवीरान्यतरप्रधानरससंश्रयम् । ख्यातेतिवृत्तसम्बद्धं सन्धिपञ्चकसंयुक्तम् ।।१३२।। प्रकृत्यवस्थासन्य्यङ्गसन्थ्यतरविभूषणैः । पताकास्थानकैर्वृत्तितदङ्गैश्च प्रवृत्तिभिः ।।१३३।।
विष्कम्भकादिसंयुक्तं नाटकं तु त्रिवर्गदम् ।
नाटक का लक्षण- सभी रूपकों की प्रकृति (मूल) होने के कारण सबसे पहले नाटक का लक्षण कहा जा रहा है- नाटक दिव्य अथवा मानुष धीरोदात्त (नायक) से समन्वित होता है। शृङ्गार तथा वीर में से किसी प्रधान रस के आश्रित होता है। (नाटक का) इतिवृत्त (कथावस्तु) प्रख्यात होती है। (मुख इत्यादि) पाँचों सन्धियों से युक्त होता है। प्रकृतिअवस्था, सन्ध्यङ्ग, सन्ध्यन्तर तथा भूषणों से युक्त, पताकास्थानक, वृत्ति और उनके अङ्गों तथा प्रवृत्ति से (समन्वित) होता है। विष्कम्भक इत्यादि से संयुक्त नाटक त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) को प्रदान करने वाला होता है।।१३१-१३४पू.।। (नारकारम्भः)
तदेतनाटकारम्भप्रकारो वक्ष्यते मया ।।१३४।। विधेर्यथैव सङ्कल्पो मुखतां प्रतिपद्यते ।