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तृतीयो विलासः
[३९३]
पृच्छा है।
अथोपदिष्टम्
प्रतिगृह्य तु शास्त्रार्थं यद् वाक्यमभिधीयते ।।
विद्वन्मनोहरं स्वन्तमुपदिष्टं तदुच्यते ।।१२५।।
(३५) उपदिष्ट- शास्त्रार्थ से ग्रहण करके अपने तथा विद्वानों के लिए मनोहर जो वाक्य कहा जाता है, वह उपदिष्ट कहलाता है।।१२५॥
यथाभिज्ञानशाकुन्तले'शकुन्तला'- (भयं नाटयन्ती) पौरव रक्ख अविण। मिअणसन्तन्ता
वि अन्तणो ण पहवाभि (पौरव रक्ष अविनयम्। मदनसन्तप्तापि न खल्वात्मनः प्रभवामि)। राजा- अलं गुरुजनाद् भयेन। न ते विदितधर्मा हि भगवान् दोषमत्र ग्रहीष्यति। पश्य
गान्धर्वेण विवाहेन बहवो राजर्षिकन्यकाः ।
श्रूयन्ते परिणीतास्ता पितृभिश्चाभिनन्दिताः ।।(3/20)599।। इत्यत्र शास्त्रानुरोधेनैव प्रवृत्तत्वादिदमुपदिष्टम् । जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल में- .
शकुन्तला- (भय का अभिनय करती हुई) हे पौरव मर्यादा (अविनय) की रक्षा करो। काम से पीड़ित भी मैं अपनी स्वामिनी नहीं हूँ। राजा- गुरुजन का भय मत करो। धर्म को जानने वाले भगवान् (कण्व) इस विषय में तुमसे रुष्ट नहीं होंगे। देखो- बहुत सी राजर्षियों की लड़कियाँ गान्धर्वविवाह द्वारा विवाहित हुई और बाद में पिताओं (गुरुजनों) द्वारा समादरित भी हुई, ऐसा सुना जाता है।(3.20)।।599।।
यहाँ शास्त्र के अनुसार प्रवृत्त होने से यह उपदिष्ट है। अथ दृष्टम्
यथादेशं यथाकालं यथारूपं च वर्ण्यते ।
यत्प्रत्यक्षं परोक्षं वा तद् दृष्टं दृष्टवन्मतम् ।।१२६।।
(३६)- स्थान, समय तथा रूप के अनुसार जो प्रत्यक्ष या परोक्ष वर्णन किया जाता है, वह दृष्ट के समान दृष्ट कहलाता है।।१२६॥
(प्रत्यक्षदृष्टं) यथा मालविकाग्निमित्रे (२.६)'राजा- अहो सर्वास्ववस्थास चारुता शोभान्तरं पुष्यति।
वामं सन्धिस्तिमितवलयं नस्य हस्तं नितम्बे कृत्वा श्यामाविटपसदृशं स्रस्तमुक्तं द्वितीयम् ।