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रसार्णवसुधाकरः
यत्सम्प्राप्तोऽसि किं वा रघुकुलतपसामीदृशोऽयं विवर्तः ।।(1.25)5961 विश्वामित्रः-(विहस्य)
जनयति त्वयि वीर दिशां पतीनपि गृहाङ्गणमात्रकुटुम्बिनः । रिपुरिति श्रुतिरेव न. वास्तवी
प्रतिभयोन्नतिरस्तु कुतस्तु नः ।।(1.26)588 ।। इत्यादावन्योन्यं पूजावचनं मधुरभाषणम् । जैसे अनर्धराघव मेंदशरथ- (विनम्रतापूर्वक) हे भगवान् विश्वामित्र!
क्या वनवासियों को श्वापदों ने किसी प्रकार का कष्ट दिया है, क्या यज्ञ में कुछ बाधा हुई है, जिससे देवों को हवि नहीं प्राप्त हो रही है। क्या आप के हृदय में सारी पृथ्वी दक्षिणा में देकर कोई यज्ञ करने की इच्छा हो रही है जो आप हमारे पास पधारे हैं या यह रघुवंशियों के तप का ही परिणाम है।(1/25)।।596।।
विश्वामित्र (हँसकर)
हे वीर! आपने जब सभी असुरों को परास्त करके देवों को भी घर भर में नियतवासी बना रखा है तब हम लोगों को कैसा भय। भय तो केवल सुनने की बात रह गयी है, वस्तुतः वह कोई वस्तु नहीं।(1.26)।।597 ।।
इत्यादि में परस्पर सम्मान-कथन मधुरभाषण है। अथ पृच्छा
प्रश्नेनैवोत्तरं यत्तु सा पृच्छा परिकीर्तिता ।।१२४।। (३४) पृच्छा- प्रश्न के द्वारा ही जो उत्तर मिलता है वह पृच्छा कहलाता है।।१२४उ.। यथा (विक्रमोर्वशीये ४/५१)
सर्वक्षितिभृतां नाथ! दृष्टा सर्वाङ्गसुन्दरी ।
रामा रम्ये वनान्तेऽस्मिन् मया विरहिता त्वया ।।598।।
इत्यत्र पर्वतानां नाथ! मया विरहिता प्रिया त्वया दृष्टेति प्रश्ने राज्ञां नाथ! त्वया विरहिता मया दृष्टेत्युत्तरस्य प्रातीयमानत्वादियं पृच्छा।
हे सभी पर्वतों के अधिराज! क्या तुमने सभी अवयवों से मनोहर, मन को रमण कराने वाली (मेरी प्रिया) को इस वन में बिछुड़ी हुई भटकती हुई देखा है क्या।।598।।
यहाँ 'हे पर्वतों के नाथ मेरी विरहित प्रिया को देखा है क्या? इस प्रकार प्रश्न करने पर 'नाथ! तुम्हारे द्वारा विरहित प्रिया मेरे द्वारा देखी गयी है' इस उत्तर के प्रतीत होने से यह