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तृतीयो विलासः
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यथा मालतीमायवे (८.१४)'मकरन्दः (स्वगतम्)
याता भवेद् भगवतीभवनं सखी सा जीवन्त्यथैष्यति न वेत्यभिशङ्कितोऽस्मि । प्रायेण बान्धवसुहृत्प्रियसङ्गमादि
सौदामनीस्फुरणचञ्चलमेव सौख्यम् ।।576।।
इत्यत्र मालती कामन्दक्याः गृहं गता वा जीवति वा न वेति संशयेन वाक्यसमाप्तेरयं संशयः ।
जैसे मालतीमाधव (८.१४)मेंमकरन्द- (अपने मन में)
यह सखी (मालती) भगवती-भवन को गयी होंगी, 'तत्पश्चात् जीती जागती आएँगी अथवा नहीं' इस विषय में मैं शङ्कायुक्त हूँ। बान्धव, मित्र और अभीष्टजन इनका समागम आदि सुख प्रायः बिजली के चमकने के समान है।।576।।
यहाँ कामन्दकी के घर गयीं हुई मालती जीवित रहेगी अथवा नहीं इस संशय के साथ कथन की समाप्ति होने के कारण संशय है।
अथ दृष्टान्तः- सपक्षे दर्शनं हेतोर्दष्टान्तः साध्यसिद्धये ।
(८) दृष्टान्त- साध्य (उद्देश्य) की सिद्धि के लिए अपने पक्ष में कारण को दिखाना दृष्टान्त कहलाता है।।१०५पू.॥
यथाभिज्ञानशाकुन्तले (२/७)राजा
शमप्रधानेषु तपोधनेषु 'गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेजः । स्पर्शानुकूला इव सूर्यकान्ता
स्तदन्यतेजोऽभिभवाद्वमन्ति ॥577।।
इत्यत्र तपोषनेषु गूढदाहात्मकतेजसः सद्भावे साध्ये सापकस्यान्य-तेजस्तिरस्कारजनिततेजस्समुहाररूपस्य हेतोः सूर्यकान्तेषु दर्शितत्वाद् दृष्टान्तः।
जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल २/६ मेंराजाशान्ति की प्रधानता वाले तपस्वियों में निश्चय ही दाह-स्वभाव वाला तेज छिपा रहता