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तृतीयो विलासः
के कारण यह केसरवृक्ष लता से सनाथ प्रतीत हो रहा है । शकुन्तला - इसी लिए तुम प्रियंवदा (प्रिय बोलने वाली हो) ।
यहाँ प्रियंवदा का प्रिय भाषण इत्यादि से यह नाम निर्वचन निरुक्ति है। अथ गुणकीर्तनम्
लोके गुणातिरिक्तानां बहूनां यत्र नामभिः ।
एकोऽपि शब्द्यते तत्तु विज्ञेयं गुणकीर्तनम् ।। ११६।।
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(२३) गुणकीर्तन - लोक में गुणों के अतिरेक वाले अनेक नामों से जब एक ही व्यक्ति का कथन किया जाता है तो उसे गुणकीर्तन जानना चाहिए।।११६।।
यथा उत्तररामचरिते (३/२६)
त्वं जीवितं त्वमसि मे हृदयं द्वितीयं त्वं कौमुदी नयनयोरमृतं त्वमङ्गे । इत्यादिभिः प्रियशतैरनुरुध्य मुग्धां तामेव शान्तमथवा किमतः परेण 11590 ।। इत्यत्रामृतकौमुदीप्रभृतिनामभिः सीताशंसनं गुणकीर्तनम् ।
जैसे उत्तररामचरित (३ / २६ में) -
तुम मेरा जीवन हो, तुम मेरा दूसरा हृदय हो, तुम मेरी आँखों में चाँदनी हो, तुम शरीर पर अमृत हो' इत्यादि सैकड़ों प्रिय वचनों से भोली सीता को अनुनय करके उन्हीं को - अथवा बस, इसके आगे कहने से क्या लाभ है ? 11590 ।।
यहाँ अमृत और कौमुदी इत्यादि नामों द्वारा सीता की प्रशंसा करना गुणकीर्तन है। अथ गर्हणम्
यत्र सङ्कीर्तयन् दोषान् गुणमर्थेन
दर्शयेत् । गुणान् वा कीर्तयन् दोषान् दर्शयेद् गर्हणं तु तत् ।। ११७।।
(२४) गर्हण - जहाँ दोषों का कथन करते हुए गुणों को प्रदर्शित किया जाय अथवा गुणों का कथन करते हुए दोषों को दिखलाया जाय वह गर्हण कहलाता है ।। ११७ ॥
यथा मालतीमाधवे (६/१५ पद्यात्पूर्वम्) -
( लवङ्गिका - भअवदि! किसण चउद्दसीरअणिमहामसाणसंचारणिब्बविसमडिअवसाओणिट्ठाविदव्चण्डपासंडुद्दण्डसाहसो साहसिओ क्खु एसो । अदो क्खु पिअसही उक्कंपिदा । (भगवति! कृष्णचर्तुदशीरजनीमहाश्मसानसञ्चार- पृथग्भूतविषमव्यवसायो निष्ठापितचण्डपाषण्डोद्दण्डभुजदण्डसाहस: साहसिकः खलु एषः । अतः खलु मे सखी उत्कम्पिता । ) मकरन्दः- (स्वगतम्) 'साधु लवङ्गिके! साधु । स्थाने खल्वनुरागोपकारयोर्गरीयसोरुपन्यासः '।