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तृतीयो विलासः
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मम तु मृदितं बाल्ये क्षौमं त्वदङ्गविवर्तनैः । अनुजनिघनस्फीताच्छोकादतिप्रणयाद् भयाद्..
वचनविकृतिस्तस्य क्रोधो मुधा क्रियते त्वया ।।591 ।। इत्यत्राश्वत्थामप्रार्थनमनुनयः । जैसे वेणीसंहार (५.४१) में
धृतराष्ट्र- हे संजय! मेरी ओर से भारद्वाज के कुल में उत्पन्न अश्वत्थामा से कहो इस इस (दुर्योधन) के साथ बाँट कर (इसकी माँ गान्धारी का ) दूध पिया गया था तथा बचपन में तुम्हारे अङ्गों की लोट-पोट से मेरा रेशमी वस्त्र रौंदा गया था- इसको आप नहीं याद कर रहे हैं। भाई (दुःशासन) की मृत्यु के बढ़े शोक से अथवा (कर्ण के विषय में) अधिक प्रेम होने के कारण भी (कहे गये इसके) अनुचित वचनों पर जो क्रोध तुम्हारे द्वारा किया जा रहा है, वह व्यर्थ हैं।।(5.41)591।।
यहाँ अश्वत्थामा के प्रति प्रार्थना अनुनय है। अथ भ्रंश:__पतनं प्रकृतादादन्यस्मिन् भ्रंश ईरितिः ।।११८।।
(२६) भ्रंश- प्रकृत (मूल) अर्थ से अन्य (अर्थ) में जाना भ्रंश कहलाता है। अर्थात् शब्द के मूल अर्थ को छोड़ कर अन्य अर्थ से जोड़ना भ्रंश है।।११८उ.।।
यथा प्रसन्नराघवे (१/३२ पद्यादनन्तरम्)
रावणः- (संवृतनिजरूपः पुरुषरूपेण प्रविष्टः) कथय क्व तावत् कर्णान्तनिवेशनीयगुणं कन्यारलं कार्मुकं च। मञ्जीरक:- इदं तावत् कार्मुकम्। कन्या तु चरमं लोचनपथमवतरिष्यति। रावण:- (ससंरम्भम्) धिङ्मुखी रे! रे! नक्षत्रपाठकानामपि गोष्ठीमदृष्टवानसि । तेऽपि कन्यामेव प्रथमं प्रकाशयन्ति। चरमं धनु। मञ्जीरक:-(स्वगतम्) कथमयं वाचालतामेव प्रकटयति' इत्यत्र रावणेन (पुरुषरूपेण प्रविष्टेन) अनुःकन्ययोः प्रकृतमर्थं परित्यज्य राशिलक्षणस्यार्थस्य प्रसञ्जनादयं भ्रंशः।
जैसे प्रसन्नराघव में (१/३२ पद्य से बाद)
रावण- (अपने रूप को छिपाकर पुरुष के रूप में प्रवेश किया हुआ) तो बताओ, कान के द्वारा सुनने योग्य गुणों वाली श्रेष्ठ कन्या और कान के पास तक खींच कर ले जाने योग्य धनुष कहाँ है? मञ्जीरक- धनुष तो यह है और कन्या (धनुष चढ़ाने के) बाद नेत्रों के सामने आएगी। रावण- (क्रोध के साथ) मूर्ख! तुम्हें धिक्कार है। क्यों रे! राशि और नक्षत्र पढ़ाने वाले (ज्योतिषियों) की सभा (तूने) नहीं देखा है। वे भी कन्या (राशि) को पहले प्रकट करते हैं और धनु (राशि) को बाद में । मञ्जीरक- (अपने मन में) यह कैसी वाचालता को प्रकट कर रहा है।
रसा.२८