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रसार्णवसुधाकरः
यथा विक्रमावशीये(४.२५)- - -
'राजा- अहह अनेन प्रियोपलब्धिशंसिना मन्दकण्ठगर्जितेन समाचासितोऽस्मि। साधाच्च त्वयि मे भूयसी प्रीतिः। कथमिव,
मामाहुः पृथिवीभुजामधिपतिं नागाधिराजो भवानव्युच्छिन्नपृथुप्रवृत्ति भवतो दानं ममाप्यर्थिषु । स्त्रीरत्नेषु ममोर्वशी प्रियतमा यूथे तवेयं वशा
सर्वं मामनु ते प्रियाविरहजां त्वं तु व्यथां मानुभूः ।।589।। इत्यत्र स्वधर्मानुधर्मणि गजाधिराजे पुरुरवसा प्रियाविरहाभाव-कथनादतिशयः। जैसे (विक्रमोर्वशीय में)
राजा- अहा! प्रिया की सूचना स्वीकार करने वाले आप के धीर- गम्भीर गर्जन से मुझे आश्वासन मिला। समानता के कारण आपमें मुझे अत्यधिक प्रेम जाग्रत हो रहा है।
__जैसे कि मुझे लोग पृथ्वी-पालक राजाओं का स्वामी (अर्थात् चक्रवर्ती नरेश) कहते हैं और आप कुञ्जरकुल के नरेश हैं। जिस प्रकार आपमें अनवरत दान जलसेक की धारा बहती है उसी प्रकार मेरी याचकों के मध्य में अनवरत दान देने की आदत बनी रहती है। तो सम्पूर्ण करियूथ में अलबेली यह हथिनी भी आप की वशवर्तिनी (प्रिया) के रूप में है। तुम्हारी सभी स्थितियाँ मेरे समान हैं। किन्तु (प्रिया वियोग में) जैसे मैं दुःखी हो रहा हूँ (वैसी स्थिति तुम्हारी न हो) तुम्हें अपनी प्रेयसी के विरह का दुःख न भोगना पड़े। (4.25)।।589।।
यहाँ अपने गुण के समान गुण वाले गजराज में पुरुरवा के द्वारा प्रिया के विरह के अभाव का कथन होने से अतिशय है। ।
अथ निरुक्तम्
निरुक्तिर्निरवद्योक्ति मान्यर्थप्रसिद्धये ।।११५।।
(२२) निरुक्त- नाम की अन्यर्थता (अन्वर्थता) की प्रसिद्धि के लिए निर्दोष (आपत्तिरहित) कथन निरुक्त कहलाता है।।११५ उ.।।
यथाभिज्ञानशाकुन्तले (१/१८ पद्यात्पूर्वम्)
'प्रियंवदा- हला! सउन्दले! एत्थ दाव मुहत्तअं चिट्ठ, जाव तुए उवगदाए एसो लदासणाहो विअ अ केसररुक्खओ पडिभादि(हला शकुन्तले! अत्रैव तावन्मुहूर्त तिष्ठ। यावत् त्वयोपगतया लतासनाथ इवायं केसरवृक्षकः प्रतिभाति)। शकुन्तला(हला! अदो खु पिअंवदा सि तुम (अत' खलु प्रियंवदासि त्वम्)।
अत्र प्रियंवदायाः प्रियभाषणादिदं नामधेयमित्युक्तिर्निरुक्तिः। जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल में (१/१८ पद्य से पूर्व)प्रियंवदा- हे शकुन्तला! तो यहीं थोड़ी देर तक रुको जिससे तुमसे संलग्न होने