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तृतीयो विलासः
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(सह दिवसनिशाभ्यांदीर्घाः श्वासदण्डा: सह मणिवलयैर्बाष्पधारा गलन्ति । सुभग! तव वियोगे तस्या उत्ताम्यन्त्याः
सह च तनुलतया दुर्बला जीविताशा।।)
इत्यत्र श्वासदण्डादीनां दीर्घभावादिविक्रियासु दिवसनिशादिभिः सह समावेशादयं पदोच्चयः।
जैसे कर्पूरमञ्जरी (२/९) में)राजा- (बाँचता है)
हे प्रिय! तुम्हारे वियोग में कर्पूरमञ्जरी के लिए दिन और रात अत्यधिक लम्बे हो गये हैं तथा वह लम्बी लम्बी साँसे छोड़ती है। विरह में दुबले हो जाने से मणिजटित कङ्कण उसके हाथ से गिर पड़ते हैं। इसी प्रकार इसकी आँखों से आँसुओं की धारा बहती रहती है। जैसे-जैसे उसका शरीर दुबला होता जाता है उसके जीवन की आशा घटती जाती है।।584।।
यहाँ श्वाँस दण्ड इत्यादि का दीर्घभाव इत्यादि विक्रियाओं में दिन-रात्रि इत्यादि के साथ समावेश होने से पदोच्चय है।
अथ तुल्यतर्क:
रूपकैरुपमाभिर्वा तुल्यार्थाभिः प्रयोजितः ।।
अप्रत्यक्षार्थसंस्पर्शस्तुल्यतर्क इतीरितः ।।११२।।
(१७) तुल्यतर्क- रूपकों और उपमाओं के द्वारा समान अर्थ के आशय से प्रयुक्त अप्रत्यक्ष अर्थ का संस्पर्श तुल्यतर्क कहलाता है।।११२।।
यथा मालतीमाधवे (३.५)'माधव:- (सहर्षम्) दिष्ट्या लवङ्गिकाद्वितीया मालत्यपि परागता ।
आश्चर्यमुत्पलदृशो वदनामलेन्दुमन्निध्यतो मम पुनर्जडिमानमेत्य । जात्येन चन्द्रमणिनेव महीधरस्य
सम्भाव्यते द्रवमयो मनसो विकारः 11585 ।। इत्यनेन्दुचन्द्रकान्ताधुपमयाऽप्रत्यक्षस्य स्नेहरूपस्य विकारस्य कथनं तुल्यतर्कः। जैसे मालतीमाधव (३.५)मेंमाधव- (प्रसन्नतापूर्वक) भाग्य से लवङ्गिका के साथ मालती भी आ गयी।
कमल के समान आँखों वाली मालती के चन्द्रमुख के सामीप्य से मेरे मन से चन्द्रमा के सामीप्य से पर्वत के विशुद्ध जाति में उत्पन्न चन्द्रकान्तमणि के समानं बार-बार जाड्य (या जलप्रकृति को) प्राप्त कर द्रव- प्रचुर अथवा जलमय विकार को धारण किया जाता है, यह आश्चर्य है।।585।।