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रसार्णवसुधाकरः
नहीं प्राप्त होती तथापि प्रसिद्धि के कारण सम्भावित रस की विभावता 'बिम्बा फल के समान अधर है' इस पद से व्यञ्जित होती है। अथवा जन्मान्तर में प्राप्त उस (पार्वती) के प्रति उनके होठों (के चुम्बनादि) का आस्वादन कर लेने वाले शङ्करजी की उस रस से रति है।
गन्धेन यथा ममैव
उन्मीलनवमालतीपरिमलन्यक्कारबन्धव्रतैरालोलैरलिमण्डलैःप्रतिपदं प्रत्याशमासेवितः । अङ्गानामभिजातचम्पकरुचामस्याः मृगयाक्ष्याः स्फुट
त्रामोदोऽयमदृष्टपूर्वमहिमा बध्नाति मे मानसम् ।।379।। अत्र पराशरमुनिप्रसादेन लब्धेन दिव्येन सत्यवतीशरीरसौरभेण शन्तनोस्तस्यां रतिः। गन्थ से जैसे शिङ्गभूपाल का ही
खिलती हुई नवमालती की सुगन्ध से दीनव्रत वाले चञ्चल भ्रमरों के समूह द्वारा पदपद पर आशा के साथ सेवन किया जाता हुआ, इस मृगाक्षी (हरिण के समान चञ्चल नेत्रों वाली) के नये चम्पक पुष्प के समान कान्ति वाले अङ्गों में स्फुरित होती हुई यह अदृष्टपूर्व गौरव वाली सुगन्ध मेरे मन को बाँध (आकर्षित कर) रही है।।379।।
- यहाँ पराशर मुनि की प्रसन्नता से प्राप्त सत्यवती के शरीर की दिव्य सुगन्ध से शन्तनु की उसके प्रति रति है।
भोजस्तु सम्प्रयोगेण रतिमन्यामुदाहरत । रतिविषयक भोज का मत
भोज ने सम्प्रयोग (सम्भोग) के कारण एक अन्य रति का भी उदाहरण दिया हैं।।१०८पू.।।
यथा (विज्जिकायाः)
उन्नमय्य सकचग्रहमोष्ठं चुम्बति प्रियतमे हठवृत्त्या । ऊहु मुश्च म म मेति च मन्दं
जल्पितं जयति बालवधूनाम् ।।380।। जैसे (विज्जिका का सुभाषितावली में)
बालों के सहित पकड़े गये होठो को ऊपर उठा कर हठपूर्वक प्रियतम द्वारा चुम्बन किये जाने पर बालवधुओं का 'ऊहु, छोड़ो, नहीं नहीं' यह धीरे से कहा गया शब्द विजयी होता है।।380।।
व्याकृतं च तेनैव अत्र तर्जनार्थमोक्षणार्थवारणार्थानां मन्दं मन्दं प्रयोगान्मान