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तृतीयो विलासः
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की अधिकता होने पर (उसका) तिरस्कार होना विधूत कहलाता है।।४३-४४पू.।।
तथा तत्रैव भागर्वभङ्गनामनि चतुर्थेऽङ्केशतानन्दः-(सीतायाश्चिबुकमुन्नमय्य)
यस्यास्ते जननी स्वयं क्षितिरयं योगीश्वरोऽयं पिता मातमैथिली शिक्ष्यते कथय किं तस्या सुजातेस्तव ।। स्नेहात्केवलमुच्यते पुनरिदं स्त्रीणां पतिर्दैवतं
यद्भूयास्त्वमास्य धर्ममपरं छायेव रामानुगा ।।(4/42)514।।
इत्युपक्रम्य "रामः - (विचिन्त्य स्वगतम्) रुदत्यपि कमनीया जानकी" (४.४७ पद्यानन्तरम्) इत्यन्तेन सीतायाः बन्युविरहजनितारतिकथनाद् विधूतम्।
जैसे वहीं (बालरामायण के) भार्गवभङ्गनामक चतुर्थ अङ्क में"शतानन्द- (सीता की ठुड्डी को उठाकर)
हे मैथिली! पृथ्वी जिनकी स्वयं माता है और ये योगीश्वर पिता है, ऐसी सुजन्मवाली तुम्हें क्या शिक्षा दी जाय। स्नेह से केवल यही कहा जा रहा है कि स्त्रियों का पति देवता होता है। तुम दूसरे धर्म को छोड़ कर केवल राम की अनुवर्तिनी होना।।'(4.42) 514।।
यहाँ से लेकर
"राम- (सोचकर अपने मन में) रोती हुई भी जानकी मनोहर है। (४.४७ पद्य से बाद) तक सीता का बन्धुजनों से वियोग के कारण अरति होने का कथन होने से विधूत है।
अथवा मतान्तरेण तत्रैव 'रामः- (समुपसृत्य) भगवन् भार्गव सदस्यं प्रसीद' (४/५८ पद्यात्पूर्वम्) इत्यारभ्य 'जामदग्न्यः- नाभिवन्दनप्रसाद्यो रेणुकासूनुः (४/५८ पद्यात्पूर्वम्) इत्यत्र रामानुनयस्य भार्गवेणास्वीकृत्यत्वाद् विधूतम्।
अथवा दूसरे मत के अनुसार वहीं (बालरामायण में)
"राम- (समीप में जाकर) हे भगवान् भार्गव (परशुराम)! प्रसन्न होइए''(४/५८ से पूर्व) से लेकर "परशुराम- यह रेणुकापुत्र अनुनय से प्रसन्न नहीं होता'(४/५८ से पूर्व) तक राम के अनुनय को परशुराम द्वारा स्वीकार न करने के कारण विधूत है।
अथ शमः
अरतेः शमनं तज्ज्ञाः शममाहुर्मनीषिणः ।।४४।। तथा तत्रैव (बालरामायणे ४/५१ पद्यात्पूर्वम्)
'हेमप्रभा- जुज्जड़ फुल्लकोदूहलराणं परसुरामदंणेणायुज्यते प्रफुल्लकौतूहलत्वं परशुरामदर्शनन) इत्यारम्भ उण पुरदो रामचन्द्ररसः' (पुरतो रामचन्द्रस्य)' इत्यन्तं रामचन्द्रपराक्रमकथनेन सीताया अरतिशमनाच्छमः।
(4) शम- उस अरति का उपशमन शमन कहलाता है।।४४उ.॥