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तृतीयो विलासः
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दशरथ:- भोः सम्बन्धिन् कृतं कार्मुकपरिग्रहव्यसनेन' इत्यन्तेन जनकस्य भार्गवनिमित्तस्य जरानिमित्तस्य वा व्यसनस्य कथनाद् विरोधः।
जैसे वहीं (बालरामायण में)
"जामदग्न्य- इसने पके कपूर की भाँति तीन को पीस डाला- मेरी लज्जा को, शिव के धनुष को अपने जीवन को।(4.66)।।519।।
जनक- “शस्त्र- ग्रहण जिसने छोड़ दिया, तथाभूत मेरे भी शस्त्र ग्रहण का समय कैसे आ गया?" यहाँ से लेकर
"हे दिव्यास्त्रविद्ये! जनक तुम्हें प्रणाम करता है। मेरे प्राचीन धनुष पर सत्रिकर्ष कर। मेरे समने परशुराम राम का तिरस्कार कर रहे हैं अतः बाणों का प्रहार करो। वार्धक्य मुझे दुःखी कर रहा है।(4.67)|152011
दशरथ- हे सम्बन्धी! शस्त्र- ग्रहण करके ही आपने पर्याप्त कर दिया" तक जनक के परशुराम के लिए अथवा जरा के लिए व्यसन (विरोध) का कथन होने से विरोध है।
अथ पर्युपासनम्__ रुष्टस्यानुनयो यः स्यात् पर्युपासनमितीरितम् ।
(9) पर्युपासन- रुष्ट व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए अनुनय-विनय करना पर्युपासन कहलाता है।।४७पू.।।
यथा तत्रैव (बालरामायणे ४.६९)विश्वामित्रः- (जामदग्न्यं प्रति)
रामः शिष्यो भृगुभवः भवान् भागिनेयीसुतो मे वामे बाहाहुत तदितरे कार्यतः को विशेषः । दिव्यास्त्राणां तव परशुपतेरस्य लाभस्तु मत्त- .
स्तत् त्वां चाये विरम कलहादार्यकारभस्व ।।521।। इत्यत्र रोषान्थस्य भार्गवस्यानुनयो विश्वामित्रेण कृत इति पर्युपासनम् । जैसे वहीं (बालरामायण ४.६९ में)"विश्वामित्र- (परशुराम के प्रति)- .
हे परशुराम! राम मेरे शिष्य और आप मेरी बहन के पोते हैं, अतः आप दोनों मेरे बाएँ ओर दाहिने हाथ हैं- कार्य से कौन विशिष्ट कहा जाय? आपने दिव्यास्त्रों को शङ्कर से और इसने मुझसे प्राप्त किया है अतः आपसे प्रार्थना करता हूँ कि कलह से रुकिए और सज्जन पुरुषों का आचरण धारण कीजिए।।521 ।।
रसा.२०