________________
[३५८]
रसार्णवसुधाकरः
(१) साम- अपनी अनुवृत्ति को प्रकाशित करने वाला प्रिय वाक्य कहना साम कहलाता है।।८३पू.॥
यथा मालविकाग्निमित्रेजैसे (मालविकाग्निमित्र) में
राजा- अये! न भेतव्यम्। मालविका- (सावष्टम्भम्) जो ण भअदि सो मरे भट्टिणीदंसणे दिवसामत्थो भट्टा (यो न बिभेति स मया भट्टिनीदर्शने दृष्टसामथ्र्यो भर्ता)।
राजा
दाक्षिण्यं नाम बिम्बोष्ठि! नायकानां कुलव्रतम् ।
तन्मे दीर्घाक्षि ये प्राणास्त्वदाशानिबन्धनाः ।।(4/14)563 ।। इत्यत्र राज्ञो वचनं साम।
राजा- अरे मत डरो। मालविका- (उलाहना के साथ) आप नहीं डरते हैं, यह मैं इरावती के सामने देख चुकी हूँ।
राजा- हे बिम्ब फल के समान होठों वाली! दाक्षिण्य उत्तम नायकों का कुलव्रत है। किन्तु हे विशाल आँखों वाली! हमारे ये प्राण तुम्हारी आशा पर ही निर्भर है।।(4.14)563।।
यहाँ राजा का कथन साम है। . अथ दानम्
दानमात्मप्रतिनिधिभूषणादिसमर्पणम् ।। ८३।।
(२) दान- अपने प्रतिनिधि के रूप में आभूषण इत्यादि को समर्पित करना दान कहलाता है।।८३उ.॥
यथा मालतीमाधवे (६/११ पद्यादनन्तरम्)
मालती- पिअसहि! सव्वदा सुमरिदव्यहिम। एसा वि माहसहत्थणिम्माणमणोहरा वउलमाला मालदीणिव्विसेसं पिअसहीए दट्ठव्या सव्वदा हिअएण धारणिजवेत्ति। (प्रियसखि! सर्वदा स्मर्तव्यास्मि! एषा च माधवस्वहस्तनिर्माणमनोहरा वकुलमाला मालतीनिर्विशेष प्रियसख्या द्रष्टव्या। सर्वदा हृदयेन च धारणीया इति)। (इति स्वकण्ठादुन्गुन माधवस्य कण्ठे वकुलमालां विन्यस्यन्ती सहसापसृत्य साध्वसोत्मकम्यं नाटयति।)
अत्र मालत्या भर्तुकामायाः प्रतिनिधितया लवनिकायां कुवलयमालासमर्पणं दानम्। जैसे मालतीमाधव (६/११पद्य से बाद में)
मालती- हे प्रियसखी! तुम्हें सदा मेरा स्मरण (याद) करना चाहिए। माधव जी के शोभा-सम्पन्न हाथों द्वारा बनाये जाने से मनोहर बकुलमाला को प्रियसखी मालती के समान देखों और सदा ही हृदय से धारण भी करो। (ऐसा कहकर अपने गले से उतारकर वकुलमाला को माधव के हृदय में पहनाती हुई सहसा हटकर लज्जाजनित कम्प का अभिनय करती है।)