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तृतीयो विलासः
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की इच्छा हुई है। दुर्योधन तो अज्ञान के कारक कुलटा (भानुमती) के हृदय तत्त्व को न जान कर कहीं और भटका हुआ था।
यहाँ देवी (भानुमती) की स्वप्नावस्था का निश्चय न करने के कारण दुर्योधन का विपरीत ज्ञान भ्रान्ति है।
अथ दूत्यम्
दूत्यं तु सहकारित्वं दुर्घटे कार्यवस्तुनि । (१६) दूत्य- दुष्कर कार्य में सहयोग करना दूत्य है।।९०पू.।। यथा मालविकाग्निमित्रे (३.१ पद्यादनन्तरम्)
विदूषकः- अलं भवदो धीरदं उज्झिअ परिदेविदेण। दिट्ठा खु मए तत्तहोदीए मालविआए पिअसही वउलावलिआ। सुणाविदाअ मह जं भवदा संदिट्ठ। (अलं भवतो धीरताम् उज्झित्वा परिदेवितेन। दृष्टा खलु मया तत्रभवत्या मालविकायाः प्रियसखी वकुलावलिका। श्राविता च मया यद्भवता सन्दिष्टम्)। राजा- ततः किमुक्तवती? विदूषकःविणावेहि भट्टार। (विज्ञापय भट्टारकम्)..... तह वि जइस्सम् (तथापि यतिष्ये)।
जैसे मालाविकाग्निमित्र में (३/१ पद्य के बाद)
"विदूषक- आप धैर्य का परित्याग करके विलाप न करें। सौभाग्य से मुझे मालविका की प्रियसखी वकुलावलिका मिल गयी थी। मैंने उससे आपका संदेश कह दिया है। राजा- इस पर उसने क्या कहा? विदूषक- स्वामी से निवेदन कर देना फिर भी मैं यत्न करूँगी।
अत्र वकुलावलिकया मालविकाग्निमित्रयोर्घटने सहकारित्वमङ्गीकृतमिति दूत्यम्।
यहाँ वकुलावलिका द्वारा मालविका और अग्निमित्र को मिलाने में सहयोग स्वीकार किया गया है अत: दूत्य है।
अथ हेत्ववधारणम्
निश्चयो हेतुनार्थस्य मतं हेत्ववधारणम् ।।९ ।। (१७) हेत्ववधारण- कारण द्वारा अर्थ का निश्चय कर लेना हेत्ववधारण है।।९०उ.॥ यथा अभिज्ञानशाकुन्तले (५/२२ में)--
स्त्रीणामशिक्षितपटुत्वममानुषीषु सन्दृश्यते किमुत याः प्रतिबोधवत्यः । प्रागन्तरिक्षगमनात् स्वमपत्यजात
मन्यैर्द्विजैः परभृताः खलु पोषयन्ति ।।571 ।। अत्र परभृतनिदर्शनोपबृंहितेन स्त्रीत्वहेतुना मृषा-भाषणलक्षणस्यार्थस्य निश्चयो