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रसार्णवसुधाकरः
यथा अभिज्ञानशाकुन्तले (७/२० पद्यादन्तरम्)
"राजा-(स्वगतम्) द्वयं खलु कथा मामेव लक्ष्यीकरोति। तावदस्य शिशोतिरं नामतः पृच्छामि। अथवा अन्याय्यः परदारव्यवहारः।" इत्युपक्रम्य "(प्रविश्य मृन्मयूरहस्ता) तापसी- सव्वदमण सउंदलावण्णं पेक्ख। (सर्वदमन शकुन्तलावण्य प्रेक्षस्व)। बाल:(सदृष्टिक्षेपम्) कहिं वा में अज्जू। (कुत्र वा मम माता)। उभे-णामसारिस्सेण वंचिदो माउवच्छलो। (नामसादृश्येन वञ्चितो मातृवत्सलः)। द्वितीया-वच्छ इमस्स मित्तिआमोरस्स रंमत्तणं देख त्ति भणिदोऽसि। (वत्स! अस्य मृतिकामयूरस्य रम्यत्वं पश्येति भणितोऽसि)। राजा- (आत्मगतम्) किं वा शकुन्तलेत्यस्य मातुराख्याः)" इत्यन्तम् शकुन्तलावण्यमित्यत्र शकुन्तलानामाक्षराणां प्रातिभानादयमक्षरसङ्घातः।
जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल (७/२० पद्य से बाद में)
"राजा- (अपने मन में) यह चर्चा निश्चित ही मुझको लक्ष्य बना रही है। तो इस बच्चे की माता का नाम पूछता हूँ। अथवा परायी स्त्री के साथ ऐसा व्यवहार अन्याय है।" यहाँ से लेकर "(हाथ में मिट्टी का बना हुआ मोर हाथ लिए प्रवेश करके) तापसी- हे सर्वदमन्!इस शकुन्तक (पक्षी) की सुन्दरता को देखो। बालक- (इधर-उधर दृष्टि डालते हुए) मेरी माँ कहाँ है। दोनों- माता से प्रेम करने वाला नाम की समानता के कारण ठगा गया है। दूसरी तापसी- बेटा! इस मिट्टी से बने मोर की सुन्दरता को देखो- ऐसा कहे गये हो। राजा- (अपने मन में) क्या शकुन्तला इसकी माता का नाम है।" यहाँ तक 'शकुन्तकलावण्य' यहाँ शकुन्तला के नाम का प्रतिभान होने से अक्षरसङ्घात है।
अथ हेतुः
स हेतुरिति निर्दिष्टो यः साध्यार्थप्रसाधकः ।।१०२।।
(३) हेतु- जो साध्य के अर्थ की सिद्धि को सिद्ध करता है, वह हेतु कहलाता है ॥१०२उ.॥
यथा रत्नावल्याम् (२.६)राजा- (तथा कृत्वा श्रुत्वा च)
स्पष्टाक्षरमिदं यत्नान्मधुरं स्त्रीस्वभावतः ।
अल्पाङ्गत्वादनि दि मन्ये वदति शारिका ।।574।। अत्र शारिकालाप-साधनाय यत्लस्पष्टाक्षरत्वादिहेतूनां कथनादयं हेतुः। जैसे रत्नावली (२/६) में
राजा-(उसी प्रकार करके और सुनकर) यह स्पष्ट अक्षर व स्त्री स्वभाव से मधुर तथा लघुकाय होने के कारण अधिक दूर तक न सुनाई देने वाला है अतः अनुमान है कि मैना बोल रही है।।574।।