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तृतीयो विलासः
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क्रमस्यानादृतत्वेन भरतादिभिरादिमैः । लक्ष्येषु व्युक्रमेणापि कथनेन विचक्षणैः ।।७७।। चतुःषष्ठिकलामर्मवेदिना सिंहभूभूजा।।
लक्षिता च चतुष्पष्टिबालरामायणे स्फुटम् ।।७८।।
सन्ध्यङ्ग-योजन में मतभेद- अभिलाषा से प्रयोजन की उपेक्षा करके (सन्धि के) अङ्गों के सम्पूर्ण कार्य को आचार्यों ने बतलाया है। कुछ लोग इन अङ्गों के क्रम में कुछ भेद करते हैं तथा मुख इत्यादि सन्धियों में अङ्गों का यह क्रम नहीं मानते। अङ्गों के क्रम की उपेक्षा के कारण भरत इत्यादि प्राचीन विचक्षण आचार्यों के द्वारा लक्ष्यों में व्युत्क्रम (विपरीतक्रम) में होने से भी चौसठ कलाओं के मर्म को जानने वाले शिङ्गभूपाल ने बालरामायण में (सन्धियों के) चौसठ अङ्गों को स्पष्ट तथा लक्षित किया है।।७५-७८॥
अथ सन्ध्यन्तराणि
मुखादिसन्धिष्वङ्गानामशैथिल्यं प्रतीतये । सन्ध्यन्तराणि योज्यानि तत्र तत्रैकविंशतिः ।।७९।। आचार्यान्तरसम्मत्या चमत्कारो विधीयते ।
वक्ष्ये लक्षणमेतेषामुदाहृतिमपि स्फुटम् ।।८।।
सन्ध्यन्तर- मुखादि सन्धियों में जहाँ अङ्गों की शिथिला प्रतीत होती है, वहाँ सन्ध्यन्तरों को जोड़ देना चाहिए। ये इक्कीस सध्यन्तर होते हैं। आचार्यों की सम्मति से (आचार्यों के मत के अनुसार) इन (सन्ध्यन्तरों) के काव्यसौन्दर्य को तथा लक्षण और उदाहरण को भी स्पष्ट रूप से निरूपित किया जा रहा है।।७९-८०॥
सामदाने भेददण्डौ प्रत्युत्पन्नमतिर्वधः । गोत्रस्खलितमोजश्च धीः क्रोधः साहसं भयम् ।।८१।। माया च संहृतिभ्रान्तिर्दूत्यं हेत्ववधारणम् ।
स्वप्नलेखौ मदश्चित्रमित्येतान्येकविंशतिः ।।८।।
सन्ध्यन्तरों की सङ्ख्या - इक्कीस सन्ध्यक्षर ये हैं- (1) साम, (2) दान, (3) भेद, (4) दण्ड, (5) प्रत्युत्पन्नमति, (6) वध, (7) गोत्रस्खलित, (8) ओज, (9) धी, (10) क्रोध, (11) साहस, (12) भय, (13) माया, (14) संहृति, (15) निर्धान्ति, (16) दूत्य, (17) हेत्ववधारण, (18) स्वप्न, (19) लेख, (20) मद, और (21) चित्र ।।८१-८२॥
तत्र साम
तत्र साम प्रियं वाक्यं स्वानुवृत्तिप्रकाशनम् ।