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रसार्णवसुधाकरः
ललितशिरीषपुष्पहननैरपि ताम्यति यत् । वपुषि वधाय तत्र तव शस्त्रमुपक्षिपतः
पततु शिरस्यकाण्डयमदण्ड इवैष भुजः ।।।565 ।। अत्रोघोरघण्टस्याविनयदर्शनेन माधवकृततर्जनं दण्डः। देखने से जैसे मालतीमाधव (५/३१) मेंमाधव- अरे-अरे पापी!
प्रणय-युक्त सखीजनों के परिहास में राग से प्राप्त कोमल शिरीषपुष्पों के प्रहारों से जो (मालती का) शरीर म्लान हो जाता है, उस शरीर में मारने के लिए शस्त्र गिराने वाले तुम्हारे शिर पर आकस्मिक रूप से पतनशील यमदण्ड के समान यह मेरी भुजा चले।।565।
___ यहाँ अघोरकण्ट की दुष्टता देखने से माधव द्वारा किये गये तर्जन (डाँटने) के कारण दण्ड है।
श्रुत्या यथा शाकुन्तले (१.२१)'राजा-(सहसोपसृत्य)
कः पौरवे वसुमती शासति शासितरि दुर्विनीतानाम् । अयमाचरत्यविनयं मुग्धासु तपस्विकन्यासु ।।566।।
अत्राविनयश्रुत्या दुष्यन्तेन कृतं तर्जनं दण्डः । सुनने से जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल के १/२४ मेंराजा- (अचानक समीप में जाकर)
उद्दण्डों को सीख देने वाले पौरव (पुरुवंशी) के पृथ्वी पर शासन करते (रहने पर) कौन है यह जो भोली तापस कन्याओं के प्रति अनुशासनहीनता का आचरण करता है।।566।।
यहाँ दुष्टता को सुनकर दुष्यन्त द्वारा किया गया तर्जन दण्ड है। अथ प्रयुत्पन्नमति:
तात्कालिकी तु प्रतिभा प्रत्युत्पन्नमतिः स्मृता ।
(5) प्रत्युत्पन्नमति- (किसी काम के आने पर) उस समय उत्पन्न प्रतिभा प्रत्युत्पत्रमति कहलाती है।
यथा मालविकाग्निमित्रे। (४/५ पद्यादमन्तरम)- -
'राजा- तयोर्द्वयोः किनिमित्तो मोक्ष इति, किं देव्याः परिजनमतिक्रम्य भवान् सन्दिष्ट इत्येवमनया प्रष्टव्यम्। विदूषकः- णं पुच्छिदो हिम। पुणो मन्दस्स वि मे पञ्चुप्पण्ण आसि तस्सि मदी। (ननु पृष्टोस्मि पुनर्मन्दस्यापि मे तस्मिन् प्रत्युत्पन्ना मतिरासीत्।। राजाकभ्यताम्। विदूषकः- भणिदं मए देव्वचिन्तएहि विण्णाविदो राआ। सोवसग्गं वो णक्खन