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रसार्णवसुधाकरः
महाम्बुधीनां - वलयविशालै--
स्तथा तथा सङ्कुचितेव पृथ्वी ।।(10/22)557 ।।
सुरचारणकिन्नरविद्याधरकुलसकुलंगगनगर्भमीक्षस्व। (प्रविश्य) विद्याधरःअतः परमगम्या अस्मादृशां भुवः। स च ब्रह्मलोक इति भूयते।" इत्यन्तेन सीतादीनामभिलषित-दिव्यलोकदर्शनरूपार्थसिद्धेरानन्दः।।
जैसे वहीं (बालरामायण में)
राम- हे विमान राज! पृथ्वी के समीप गमन को त्याग कर कुछ ऊपर हो जाओ। सीता को स्वर्ग की वस्तुओं को देखने का कौतूहल है। (ऊपर जाने का अभिनय करते हुए)
हे सुन्दरी (सीता)! वेगशील पुष्पक जैसे-जैसे ऊपर आकाश की चोटी पर चढ़ रहा है, वैसे ही पृथ्वी महासागरों के विशाल मण्डलों के साथ सङ्कुचित सी होती जा रही है।(10.22)।।557।।
गन्धर्वो, किन्नरों और विद्याधरों से व्याप्त आकाश को देखो। (प्रवेश करके) विद्याधरहे रामभद्र! हम लोगों के लिए यह पृथ्वी अगम्य है। ऊपर ब्रह्मलोक है, ऐसा सुना जाता है" यहाँ तक सीता इत्यादि लोगों का अभिलषित दिव्यलोक दर्शन रूप अर्थ सिद्धि के कारण आनन्द है। अथ समय:
समयो दुःखापगमः । (8) समय- दुःख के दूर हो जाने को समय कहते हैं। यथा तत्रैव (बालरामायणे १०/१०० पद्यात्पूर्वम्)
"भरतः- आर्य रावणविद्रावण! भरतोऽहमभिवादये।" इत्युपक्रम्य, "(भरतसुग्रीवविभीषणाः परस्परं परिष्वजन्ते)" इत्यन्तेन बन्धूनामन्योऽन्यावलोकनपरिष्वङ्गादिभिर्दुःखापगमकथनात् समयः।
जैसे वहीं (बालरामायण में १०/१०० पद्य से पूर्व)
"भरत- हे रावण संहारक आर्य (राम)! मैं भरत अभिवादन कर रहा हूँ" यहाँ से लेकर “भरत, सुग्रीव और विभीषण परस्पर गले मिलते हैं"। १०/१०० पद्य से पूर्व) यहाँ तक भाइयों का परस्पर एक दूसरे को देखने, आलिङ्गन आदि द्वारा दुःख के दूर हो जाने के कथन के कारण समय है।
अथ कृतिः
कृतिरपि लब्धार्थसुस्थिरीकरणम् ।। ७३।। (१) कृति- प्राप्त अर्थ का स्थिरीकरण कृति कहलाता है। यथा तत्रैव (बालरामायणे १०/९६ पद्यात्पूर्वम्)"(प्रविश्य) हनूमान्- देव मत्तः श्रुतवृत्तान्तो वसिष्ठः समं भरतशत्रुघ्नाभ्यामन्या