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रसार्णवसुधाकरः
(11) उपगूहन- अद्भुत वस्तु की प्राप्ति उपगूहन कहलाती है।।७४पू.।। यथ तत्रैव (बालरामायणे)"अलका- अहो नु खलु भोः पतिव्रतामयं ज्योतिः अनभिभवनीयं ज्योतिरन्तरैः। यत:
प्रविशन्या चितावक्त्रं जानक्या परिशुद्धये ।
न भेदः कोऽपि निर्णीतः पयसः पावकस्य च ।।(10/9)559।। (विचिन्त्य)" इत्युपक्रम्य"(नेपथ्ये)
योगीन्द्रश्च नरेन्द्रश्च यस्याः स जनकः पिता ।
विशुद्धा रामगृहिणी बभौ दशरथस्नुषा ।।(10/14)560।। इत्यन्तेन सीतायाः निःशकज्वलनप्रवेशनिरपायनिर्गमन-रूपाश्चर्यकथनादुपगृहनम्। जैसे वही (बालरामायण में)"अलका- अहो! पातिव्रत तेज अन्य तेजो से अभिभूत नहीं होता। क्योंकि
आत्मशुद्धि के लिए समित्समिद्ध अग्नि के मुख में प्रवेश करती हुई सीता को जल और अग्नि में कोई भेद का कोई निश्चित ज्ञान नहीं हो रहा है।।(10.9)।।559।।
(सोचकर) यहाँ से लेकर- . . "(नेपथ्य में)
योगीश्वर और नरेन्द्र जिसके पिता हैं, वह राम की गृहिणी, दशरथ की पुत्रवधू, अग्नि में शुद्ध हो गयी'।(10.14)560।।
यहाँ तक सीता के निःशाङ्क अग्नि में प्रवेश तथा यथावत् रूप में बाहर निकल आने रूप आश्चर्य का कथन होने से उपगूहन है।
अथ पूर्वभाव:
दृष्टक्रमकार्यस्य स्याद् पूर्वभावस्तु ।। ७४।। (12) पूर्वभाव- कार्य के दर्शन को पूर्वभाव कहते हैं।।७४उ.।। यथा तत्रैव (बालरामायणे १०/१०२ पद्यादनन्तरम्)
"वत्स रामभद्र! प्रशस्तो मुहूतों वति। तदध्यास्व पित्र्यं सिंहासनम्।"इत्युपक्रम्य "वसिष्ठः- रामभद्र! धन्योऽसि। यस्य ते भगवान् कुबेरोऽर्थी' इत्यन्तेन वसिष्ठेन रामभद्रस्याभिषेकाङ्गीकरणकुबेरविमानप्रत्यर्पणरूपयोरर्थयोर्दर्शनात् पूर्वभावः।
जैसे वहीं (बालरामायण में १०/१०२ पच से पूर्व)
"बेटा रामभद्र! शुभ मुहूर्त है तो अपने पिता के सिंहासन पर बैठो।" यहाँ से लेकर "वसिष्ठ- रामभद्र! तुम धन्य हो कि भगवान् कुबेर तुमसे माँगने आये हैं" यहाँ तक वसिष्ठ