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रसार्णवसुधाकरः
अथ परिभाषणम्- .... - परिभाषणं त्वन्योऽन्यं जल्पनमथवा परीवादः।
(५) परिभाषण- परस्पर की बातचीत अथवा निन्दा करना परिभाषण कहलाता है।।७१पू.॥
यथा तत्रैव (बालरामायणे १०/९२ पद्यादनन्तरम्)
सीता-अज्जउत्त! दसकण्ठणिसूअण वाराणसीसंकित्तेणेण सुमराविदम्हि अक्खि. आणहं जणणीभूदं मिहिलां महाणअरीं। (आर्यपुत्र! दशकण्ठनिषूदन! वाराणसीसीनिन स्मारितास्मि अक्ष्यानन्दं मिथिलां महानगरीम्" इत्युपक्रम्य "विभीषण:- इह हि खलु क्षत्रियान्तकरस्य भङ्गो भार्गवमुनेर्दत्तः।
सग्रीवः
अपां फेनेन तृप्तोऽसौ स्नातश्चन्द्रिकया च सः ।
यदप्रसूतकौशल्यं क्षत्रं क्षपितवान् मुनिः ।।(10/94)554।।
इत्यन्तेन सीतारामविभीषणसुप्रीवाणामन्योऽन्यसझल्पनेन वा सुप्रीवेण भार्गवपरीवादसूचनाद्वा परिभाषणम्।
जैसे वहीं (बालरामायण में १०/९२ पद्य से बाद)
"सीता- हे आर्यपुत्र दशकण्ठषूदन! वाराणसी की चर्चा से नेत्रों को आनन्द देने वाली मातृतुल्य महानगरी मिथिला की याद आ रही है" यहाँ से लेकर "विभीषण- यहाँ पर महाराज राम ने क्षत्रियों के विनाशक परशुराम मुनि को पराभूत किया था।
सुग्रीव
वे मुनि जल के फेन में तृप्त हुए तथा चन्द्रिका से स्नान किये जिन्होंने कौशल्या से उत्पन्न क्षत्रियों के अतिरिक्त क्षत्रियों का विनाश किया।"(10.94)।।554।।
यहाँ तक सीता, राम, विभीषण और सुग्रीव की परस्पर बातचीत अथवा परशुराम की निन्दा की सूचना के कारण परिभाषण है।
अथ प्रसादः
शुश्रूषादिप्राप्तं प्रसादमाहुः प्रसन्नत्वम् ।।७१।। (5) प्रसाद- सेवा इत्यादि से प्रसन्न करने के प्रयत्न को प्रसाद कहते हैं।।७१उ.।। यथा तत्रैव (बालरामायणे)"रामः- (हस्तमुद्यम्य) हं हो पुष्पक वायुवेग मुनिना धूमः पुरः पीयते छायां मा कुरु कोऽप्ययं दिनमणावेकाग्रदृष्टिः स्थितः ।